कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
सिंगारसिंह को जब से दयाकृष्ण के इस प्रेमाभिनय की सूचना मिली है, उसके खून का प्यासा हो गया है। ईर्ष्याग्नि से फुंका जा रहा है। उसने दयाकृष्ण के पीछे कई शोहदे लगा रखे हैं कि उसे जहाँ पाएं, उसका काम तमाम कर दें। वह खुद पिस्तौल लिए उसकी टोह में रहता है। दयाकृष्ण इस खतरे को समझता है, जानता है; पर अपने नियत समय पर माधुरी के पास बिना नागा आ जाता है। मालूम होता है, उसे अपनी जान का कुछ भी मोह नहीं है। शोहदे उसे देखकर क्यों कतरा जाते हैं, मौक़ा पाकर भी क्यों उस पर वार नहीं करते, इसका रहस्य वह नहीं समझता।
एक दिन माधुरी ने उससे कहा- ''कृष्णजी, तुम यहाँ न आया करो। तुम्हें तो पता नहीं है; पर यहाँ तुम्हारे बीसों दुश्मन हैं। मैं डरती हूँ कि किसी दिन कोई बात न हो जाए।''
शिशिर की तुषार-मंडित संध्या थी। माधुरी एक काश्मीरी शाल ओढ़े हुए अँगीठी के सामने बैठी हुई थी। कमरे में बिजली का रजत प्रकाश फला हुआ था। दयाकृष्ण ने देखा, माधुरी की आँखें सजल हो गई हैं और वह मुँह फेरकर उन्हें दयाकृष्ण से छिपाने की चेष्टा कर रही है। प्रदर्शन पर सुखभोग करनेवाली रमणी क्यों इतना संकोच कर रही है, यह उसका अनाड़ी मन न समझ सका। हाँ, माधुरी के गोरे, प्रसन्न, संकोच-हीन मुख पर लज्जा-मिश्रित मधुरिमा की ऐसी छटा उसने कभी न देखी थी। आज उसने उस मुख पर कुल-वधू की भीरु आकांक्षा और दृढ़ वात्सल्य देखा और उसके अभिनय में सत्य का उदय हो गया।
उसने स्थिर भाव से जवाव दिया- ''मैं तो किसी की बुराई नहीं करता, मुझसे किसी को क्यों बैर होने लगा। मैं यहाँ किसी का वाधक नहीं, किसी का विरोधी नहीं। दाता के द्वार पर सभी भिक्षुक जाते हैं। अपना-अपना भाग्य है, किसी को एक चुटकी मिलती है, किसी को पूरा थाल। कोई क्यों किसी से जले? अगर किसी पर तुम्हारी विशेष कृपा है, तो मैं उसे भाग्यशाली समझकर उसका आदर करूँगा। जलूं क्यों?''
माधुरी ने स्नेह-कातर स्वर में कहा- ''जी नहीं, आप कल से न आया कीजिए।''
दयाकृष्ण मुसकिराकर बोला- ''तुम मुझे यहाँ आने से नहीं रोक सकतीं। भिक्षुक को तुम दुत्कार सकती हो, द्वार पर आने से नहीं रोक सकतीं।''
माधुरी स्नेह की आँखों से उसे देखने लगी, फिर वोली- ''क्या सभी आदमी तुम्हीं जैसे निष्कपट हैं?''
''तो फिर मैं क्या करूँ?''
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