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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


''आ हा, तुम तो जबान पकड़ते हो कृष्ण। क्षमा करो, उनकी आज्ञा से नहीं, तुम अपनी इच्छा से आए थे। अब तो राजी हुए। अब यह बताओ, आगे तुम्हारे क्या इरादे हैं। मैं वचन तो दे दूँगी; मगर अपने संस्कारों को नहीं वदल सकती। मेरा मन दुर्बल है। मेरा सतीत्व कब का नष्ट हो चुका है। अन्य मूल्यवान पदार्थों की ही तरह रूप और यौवन की रक्षा भी बलवान हाथों से हो सकती है। मैं तुमसे पूछती हूँ तुम मुझे अपनी शरण में लेने पर तैयार हो? तुम्हारा आशय पाकर तुम्हारे प्रेम की शक्ति से, मुझे विश्वास है, मैं जीवन के सारे प्रलोभनों का सामना कर सकती हूँ। मैं इस सोने के महल को ठुकरा दूँगी; लेकिन इसके बदले मुझे किसी हरे वृक्ष की छाँह तो मिलनी चाहिए। वह छाँह तुम मुझे दोगे? अगर नहीं दे सकते, तो मुझे छोड़ दो। मैं अपने हाल में मगन हूँ। मैं वादा करती हूँ सिंगारसिंह से मैं कोई संबंध न रखूँगी। वह मुझे घेरेगा, रोएगा, संभव है गुंडों से मेरा अपमान कराए, आतंक दिखाए; लेकिन मैं सव कुछ झेल लूँगी, तुम्हारी खातिर से...।''

आगे और कुछ न कहकर वह तृष्णा-भरी, लेकिन उसके साथ ही निरपेक्ष नेत्रों से दयाकृष्ण की ओर देखने लगी, जैसे कोई दुकानदार गाहक को बुलाता तो है; पर साथ ही यह भी दिखाना चाहता है कि उसे उसकी परवाह नहीं है।

दयाकृष्ण क्या जवाब दे? संघर्षमय संसार में उसने अभी केवल एक क़दम टिका पाया है। इधर वह अंगुल-भर जगह भी उससे छिन गई है। शायद जोर मारकर वह फिर वह स्थान पा जाए; लेकिन वहाँ बैठने की जगह नहीं और एक-दूसरे प्राणी को लेकर तो वह खड़ा भी नहीं रह सकता। अगर मान लिया जाए कि अदम्य उद्योग से दोनों के लिए स्थान निकाल लेगा, तो आत्म-सम्मान को कहाँ ले जाए? संसार क्या कहेगा! लीला क्या फिर उसका मुँह देखना चाहेगी, सिंगार से वह फिर आँखें मिला सकेगा? यह भी छोड़ो। लीला अगर उसे पतित समझती है समझे, सिंगार अगर उससे जलता है जले, उसे इसकी परवाह नहीं है; लेकिन अपने मन को क्या करे? विश्वास उसके अंदर आकर जाल में फँसे पक्षी की भाँति फड़फड़ाकर निकल भागता है। कुलीना अपने साथ विश्वास का वरदान लिए आती है। उसके साहचर्य में हमें कभी संदेह नहीं होता। वहाँ संदेह के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण चाहिए। कुत्सिता संदेह का संस्कार लिए आती. है। वहाँ विश्वास के लिए प्रत्यक्ष-अत्यंत प्रत्यक्ष-प्रमाण की जरूरत है। उसने नम्रता से कहा- ''तुम जानती हो, मेरी क्या हालत है?''

''हाँ, खूब जानती हूँ।''

''और उस हालत में तुम प्रसन्न रह सकोगी?''

''तुम ऐसा प्रश्न क्यों करते हो कृष्ण, मुझे दुःख होता है। तुम्हारे मन में जो संदेह है, वह मैं जानती हूँ समझती हूं। मुझे भ्रम हुआ था कि तुमने भी मुझे जान लिया है, समझ लिया है। अब मालूम हुआ, मैं धोखे में थी।''

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