कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
वह उठकर वहाँ से जाने लगी। दयाकृष्ण ने उसका हाथ पकड़ लिया और प्रार्थी भाव से वोला- ''तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो माधुरी। मैं सत्य कहता हूँ ऐसी कोई बात नहीं है.. ''
माधुरी ने खड़े-खड़े विरक्त मन से कहा- ''तुम झूठ बोल रहे हो, बिलकुल झूठ। तुम अब भी मन से यह स्वीकार नहीं कर रहे हो, कि कोई स्त्री स्वेच्छा से रूप का व्यवसाय नहीं करती। पैसे के लिए अपनी लज्जा को उघाड़ना, तुम्हारी समझ में कुछ ऐसी आनंद की बात है, जिसे वेश्या शौक से करती है। तुम वेश्या में स्त्रीत्व का होना संभव से वहुत दूर समझते हो। तुम इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते कि वह क्यों अपने प्रेम में स्थिर नहीं होती। तुम नहीं जानते कि प्रेम के लिए उसके मन में कितनी व्याकुलता होती है और जब वह सौभाग्य से उसे पा जाती है, तो किस तरह प्राणों की भाँति उसे संचित रखती है। खारे पानी के समुद्र में मीठे पानी का छोटा-सा पात्र कितना प्रिय होता है, इसे वह क्या जाने, जो मीठे पानी के मटके उँडेलता रहता हो।''
दयाकृष्ण कुछ ऐसे असमंजस में पडा हुआ था कि उसके मुँह से एक भी शब्द न निकला। उसके मन में जो शंका चिनगारी की भाँति छिपी हुई है, वह बाहर निकल कर कितनी भयंकर ज्वाला उत्पन्न कर देगी। उसने कपट का जो अभिनय किया था, प्रेम का जो स्वाँग रचा था, उसकी ग्लानि उसे और भी व्यथित कर रही थी।
सहसा माधुरी ने निष्ठुरता से पूछा- ''तुम यहाँ क्यों बैठे हो? ''
दयाकृष्ण ने अपमान को पीकर कहा- ''मुझे सोचने के लिए कुछ समय दो माधुरी!''
''क्या सोचने के लिए?''
''अपना कर्तव्य।''
''मैंने अपना कर्तव्य सोचने के लिए तो तुमसे समय नहीं माँगा। तुम अगर मेरे उद्धार की बात सोच रहे हो, तो उसे दिल से निकाल डालो। मैं खरा हूँ और तुम साधुता के पुतले हो-जब तक यह भाव तुम्हारे अंदर रहेगा, मैं तुमसे उसी तरह बात करूँगी जैसे औरों के साथ करती हूँ। मैं अगर भ्रष्टा हूँ तो जो लोग मेरे यहाँ अपना मुँह काला करने आते हैं, वे कुछ कम भ्रष्ट नहीं है। तुम जो एक मित्र की स्त्री पर दाँत लगाए हुए हो, तुम जो एक सरला अबला के साथ झूठे प्रेम का स्वाँग करते हो, तुम्हारे हाथों अगर मुझे स्वर्ग भी मिलता हो, तो उसे ठुकरा दूँ।''
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