कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
दयाकृष्ण ने हाथ मिलाते हुए पूछा- ''क्या पाँव-पाँव ही आ रहे हो, मुझे क्यों न बुला लिया?''
सिंगार ने उसे चुभती हुई आँखों से देखकर कहा- ''मैं तुमसे यह पूछने आया हूँ कि माधुरी कहाँ है। अवश्य तुम्हारे घर में होगी।''
''क्यों, अपने घर पर होगी, मुझे क्या खबर? मेरे घर क्यों आने लगी?''
''इन बहानों से काम न चलेगा, समझ गए। मैं कहता हूँ मैं तुम्हारा खून पी जाऊँगा; वरना ठीक-ठीक बता दो, वह कहाँ गई।''
''मैं बिलकुल कुछ नहीं जानता, तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ। मैं तो दो दिन से घर से निकला ही नहीं।''
''रात को मैं उसके पास था। सवेरे मुझे उसका यह पत्र मिला। मैं उसी वक्त दौड़ा हुआ उसके घर गया। वहाँ उसका पता न था। नौकरों से इतना मालूम हुआ, ताँगे पर बैठकर कहीं गई है। कहाँ गई है, यह कोई न बता सका। मुझे शक हुआ, यहाँ आई होगी। जब तक तुम्हारे घर की तलाशी न ले लूँगा, मुझे चैन न आएगा।'' उसने मकान का एक-एक कोना देखा, तख्त के नीचे, आलमारी के पीछे। तब निराश होकर बोला- ''बड़ी वेवफ़ा और मक्कार औरत है। जरा इस खत को पढ़ो।''
दोनों फर्श पर बैठ गए। दयाकृष्ण ने पत्र लेकर पढ़ना शुरू किया-
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