कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
दयाकृष्ण ने लाल आँख करके कहा- ''तुमने फिर वही आक्षेप किया!''
माधुरी तिलमिला उठी। उसकी रही-सही मृदुता भी ईर्ष्या के उमड़ते हुए प्रवाह में समा गई। लीला पर आक्षेप भी असह्य है; इसलिए कि वह कुलवधू है। मैं वेश्या हूँ इसलिए मेरे प्रेम का उपहार भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।
उसने अविचलित भाव से कहा- ''आक्षेप नहीं कर रही हूँ सच्ची बात कह रही हूँ। तुम्हारे डर से बिल खोदने नहीं जा रही हूँ। तुम स्वीकार करो या न करो, तुम लीला पर मरते हो। तुम्हारी लीला तुम्हें मुबारक रहे। मैं अपने सिंगारसिंह ही में प्रसन्न हूँ। उद्धार की लालसा अब नहीं रही। पहले जाकर अपना उद्धार करो। अब से खबरदार कभी भूलकर भी यहाँ न आना, नहीं तो पछताओगे। तुम-जैसे रँगे हुए सियार पतितों का उद्धार नहीं करते। उद्धार वही कर सकते हैं, जो उद्धार के अभिमान को हृदय में आने ही नहीं देते। जहाँ प्रेम है, वहाँ किसी तरह का भेद नहीं रह सकता।''
यह कहने के साथ ही वह उठकर बरावर वाले दूसरे कमरे में चली गई और अंदर से द्वार बंदकर लिया।
दयाकृष्ण कुछ देर वहाँ मर्माहत-सा बैठा रहा, फिर धीरे-धीरे नीचे उतर गया, मानो देह में प्राण न हों। दो दिन दयाकृष्ण घर से न निकला। माधुरी ने उसके साथ जो व्यवहार किया, इसकी उसे आशा न थी। माधुरी को उससे प्रेम था, इसका उसे विश्वास था; लेकिन जो प्रेम इतना असहिष्णु हो, जो दूसरे के मनोभावों का जरा भी विचार न करे, जो मिथ्या कलंक आरोपण करने में भी संकोच न करे, वह उन्माद हो सकता है, प्रेम नहीं। उसने बहुत अच्छा किया, कि माधुरी के कपट-जाल में न फँसा, नहीं तो उसकी न जाने क्या दुर्गति होती।
पर दूसरे क्षण उसके भाव बदल जाते और माधुरी के प्रति उसका मन कोमलता से भर जाता। अब वह अपनी अनुदारता पर, अपनी संकीर्णता पर पछताता। उसे माधुरी पर संदेह करने का कोई कारण न था। ऐसी दशा में ईर्ष्या स्वाभाविक है और वह ईर्ष्या ही क्या, जिसमें डंक न हो, विष न हो। माना, समाज उसकी निंदा करता। यह भी मान लिया, कि माधुरी सती भार्या न होती। कम-से-कम सिंगारसिंह तो उसके पंजे से निकल जाता। दयाकृष्ण के सिर से ऋण का भार तो कुछ हलका हो जाता, लीला का जीवन तो सुखी हो जाता।
सहसा किसी ने द्वार खटखटाया। उसने द्वार खोला, तो सिंगारसिंह सामने खड़ा था। बाल बिखरे हुए, कुछ अस्त-व्यस्त।
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