कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
''दोनों में प्रेम हो गया था। माधुरी उसके साथ रहना चाहती थी। वह राजी न हुआ।''
लीला ने एक लंबी साँस ली। दयाकृष्ण के वह शब्द याद आए, जो उसने कई महीने पहले कहे थे। दयाकृष्ण की वह याचना-भरी आँखें उसके मन को मसोसने लगीं।
सहसा किसी ने बड़े जोर से द्वार खोला और धड़धड़ाता हुआ भीतरवाले कमरे के द्वार पर आ गया।
सिंगार ने चकित होकर कहा- ''अरे! तुम्हारी यह क्या हालत है कृष्ण! किधर से आ रहे हो?''
दयाकृष्ण की आँखें लाल थीं, सिर और मुँह पर गर्द जमी हुई, चेहरे पर घबराहट, जैसे कोई दीवाना हो।
उसने चिल्लाकर कहा- ''तुमने सुना, माधुरी इस संसार में नहीं रही!''
और दोनों हाथों से सिर पीट-पीटकर रोने लगा, मानो हृदय को और प्राणों को आँखों से बहा देगा।
7. बैर का अंत
रामेश्वरराय ने अपने बड़े भाई के शव को खाट से नीचे उतारते हुए छोटे भाई से बोले–तुम्हारे पास कुछ रुपये हों तो लाओ, दाह-क्रिया की फिक्र करें, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ।
छोटे भाई का नाम विश्वेश्वरराय था। वह एक जमींदार के कारिंदा थे, आमदनी अच्छी थी। बोले, आधे रुपये मुझसे ले लो। आधे तुम निकालो।
रामेश्वर– मेरे पास रुपये नहीं हैं।
विश्वेश्वर– तो फिर इनके हिस्से का खेत रेहन रख दो।
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