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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


रामे०– तो जाओ, कोई महाजन ठीक करो। देर न लगे। विश्वेश्वरराय ने अपने मित्र से कुछ रुपये उधार लिये, उस वक्त का काम चला। पीछे फिर कुछ रुपये लिये, खेत की लिखा-पढ़ी कर दी। कुल पाँच बीघे ज़मीन थी, 300 रु० मिले। गाँव के लोगों का अनुमान है कि क्रिया-कर्म में मुश्किल से 100 रु० उठें होंगे; पर विश्वेश्वरराय ने षोड़शी के दिन 301 रु का लेखा भाई के सामने रख दिया। रामेश्वर राय ने चकित हो कर पूछा– सब रुपये उठ गये?

विश्वे०– क्या मैं इतना नीचा हूँ कि करनी के रुपये भी कुछ उठा रखूँगा! किसको यह धन पचेगा।

रामे०– नहीं, मैं तुम्हें बेईमान नहीं बनाता, खाली पूछता था।

विश्वे०– कुछ शक हो तो जिस बनिये से चीजें ली गयी हैं, उससे पूछ लो।

साल-भर बाद एक दिन विश्वेश्वरराय ने भाई से कहा– रुपये हों तो लाओ, खेत छुड़ा लें।

रामे०– मेरे पास रुपये कहाँ से आये? घर का हाल तुमसे छुपा थोड़े ही है।

विश्वे०– तो मैं सब रुपये देकर जमीन छोड़ाये लेता हूँ। जब तुम्हारे पास रुपये हों, आधा दे कर अपनी जमीन मुझसे ले लेना।

रामे०– अच्छी बात है, छुड़ा लो।

30 साल गुजर गये। विश्वेश्वरराय जमीन को भोगते रहे; उसे खाद-गोबर से खूब सजाया।

उन्होंने निश्चय कर लिया था कि यह जमीन न छोड़ूँगा। मेरा तो इस पर मोरूसी हक हो गया। अदालत से भी कोई नहीं ले सकता। रामेश्वरराय ने कई बार यत्न किया कि रुपये दे कर अपना हिस्सा ले लें; पर तीस साल में कभी 150 रु० जमा न कर सके।

मगर रामेश्वरराय का लड़का जागेश्वर कुछ सँभल गया। वह गाड़ी लादने का काम करने लगा था और इस काम में उसे अच्छा नफा भी होता था। उसे अपने हिस्से की रात-दिन चिंता रहती थी। अंत में उसने रात-दिन श्रम करके यथेष्ट धन बटोर लिया और एक दिन चाचा से बोला– काका, अपने रुपये ले लीजिए। मैं अपना नाम चढ़वा लूँ।

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