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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801
आईएसबीएन :9781613015384

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


मिसेज सक्सेना जयराम को खूब जानती थीं। उन्हें मालूम था कि यह त्याग और साहस का पुतला है और अब तक परिस्थितियों के कारण पीछे दबका हुआ था। इसके साथ ही वह यह भी जानती थीं कि इसमें वह धैर्य और बर्दाश्त नहीं है, जो पिकेटिंग के लिए लाजमी है। जेल में उसने दारोगा को अपशब्द कहने पर चाँटा लगाया था और उसकी सजा तीन महीने और बढ़ गयी थी। बोलीं- आपके सिर गृहस्थी का भार है। मैं घमंड नहीं करती पर जितने धैर्य से मैं यह काम कर सकती हूँ, आप नहीं कर सकते।
जयराम ने उसी नम्र आग्रह के साथ कहा- आप मेरे पिछले रेकार्ड पर फैसला कर रही हैं। आप भूल जाती हैं कि आदमी की अवस्था के साथ उसकी उद्दंडता घटती जाती है।

प्रधान ने कहा- मैं चाहता हूँ, महाशय जयराम इस काम को अपने हाथों में लें।

जयराम ने प्रसन्न होकर कहा- मैं सच्चे हृदय से आपको धन्यवाद देता हूँ।

मिसेज़ सक्सेना ने निराश होकर कहा- महाशय, जयराम, आपने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है और मैं इसे कभी क्षमा न करूँगी। आप लोगों ने इस बात का आज नया परिचय दे दिया कि पुरुषों के अधीन स्त्रियाँ अपने देश की सेवा भी नहीं कर सकतीं।

दूसरे दिन, तीसरे पहर जयराम पाँच स्वयंसेवकों को लेकर बेगमगंज के शराबखाने की पिकेटिंग करने जा पहुँचा। ताड़ी और शराब-दोनों की दूकानें मिली हुई थीं। ठीकेदार भी एक ही था। दूकान के सामने सड़क की पटरी पर, अंदर के आँगन में नशेबाजों की टोलियाँ विष में अमृत का आनंद लूट रहीं थीं। कोई वहाँ अफलातून से कम न था। कहीं वीरता की डींग थी, कहीं अपने दान-दक्षिणा के पचड़े, कहीं अपने बुद्धि-कौशल का आलाप। अहंकार नशे का मुख्य रूप है। एक बूढ़ा शराबी कह रहा था- भैया, जिंदगानी का भरोसा नहीं। हाँ, कोई भरोसा नहीं। मेरी बात मान लो, जिदंगानी का कोई भरोसा नहीं। बस यही खाना-खिलाना याद रह जाएगा। धन-दौलत, जगह-जमीन सब धरी रह जाएगी!

दो ताड़ीवालों में एक दूसरी बहस छिड़ी हुई थी- ‘हम-तुम रिआया हैं भाई! हमारी मजाल है कि सरकार के सामने सिर उठा सकें?’

‘अपने घर में बैठकर बादशाह को गालियाँ दे लो लेकिन मैदान में आना कठिन है।’

‘कहाँ की बात भैया, सरकार तो बड़ी चीज है, लाल पगड़ी देखकर आना कठिन है।’

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