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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801
आईएसबीएन :9781613015384

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


‘आप मेरी इतनी विनय मान जाइएगा। शोहदों के लिए आवाज कसना बिलकुल मामूली बात है।’

‘मैं आवाजों की परवाह नहीं करती!’

‘तो फिर मैं भी आपके साथ चलूँगा’

‘आप इस हालत में?’-मिसेज सक्सेना ने आश्चर्य से कहा।

‘मैं बिलकुल अच्छा हूँ, सच!

‘यह नहीं हो सकता। जब तक डाक्टर यह न कह देगा कि अब आप वहाँ जाने के योग्य हैं, आपको न जाने दूँगी। किसी तरह नहीं।’

‘तो मैं भी आपको न जाने दूँगी।’ मिसेज सक्सेना ने मृद़ु-व्यंग के साथ कहा- आप भी अन्य पुरुषों ही की भाँति स्वार्थ के पुतले हैं। सदा यश खुद लूटना चाहते हैं, औरतों को कोई मौका नहीं देना चाहते। कम से कम यह तो देख लीजिए कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ या नहीं। जयराम ने व्यथित कंठ से कहा- जैसी आपकी इच्छा!

तीसरे पहर मिसेज सक्सेना चार स्वयंसेवकों के साथ बेगमगंज चलीं। जयराम आँखें बंद किए चारपाई पर पड़ा था। शोर सुन कर चौंका और अपनी स्त्री से पूछा- यह कैसा शोर है?

स्त्री ने खिड़की से झाँक कर देखा और बोली- वह औरत, जो कल आयी थी झंडा लिए कई आदमियों के साथ जा रही है। इसमें शर्म भी नहीं आती।

जयराम ने उसके चेहरे पर क्षमा की दृष्टि डाली और विचार में डूब गया। फिर वह उठ खड़ा हुआ और बोला- मैं भी वहीं जाता हूँ।

स्त्री ने उसका हाथ पकड़ कर कहा- अभी कल मार खा कर आये हो, आज फिर जाने की सूझी!

जयराम ने हाथ छुड़ा कर कहा- तुम उसे मार कहती हो, मैं उसे उपहार समझता हूँ।

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