कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
स्वयंसेवक ने कुछ ऐसा मुँह बना लिया, जैसे वहाँ की दशा कहना वह उचित नहीं समझता और बोल- कुछ नहीं, देवी जी आदमियों को समझा रही हैं।
जयराम ने उसकी ओर अतृप्त नेत्रों से ताका, मानों कह रहे हों- बस इतना ही! इतना तो मैं जानता ही था।
स्वयंसेवक ने एक क्षण बाद फिर कहा- देवियों का ऐसे शोहादों के सामने जाना अच्छा नहीं।
जयराम ने अधीर होकर पूछा- साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते, क्या बात है।
स्वयंसेवक डरते-डरते बोला- सब के सब उनसे दिल्लगी कर रहे हैं। देवियों का यहाँ आना अच्छा नहीं। जयराम ने और कुछ न पूछा। डंडा उठाया और लाल-लाल आँखें निकाले बिजली की तरह कौंध कर शराबखाने के सामने जा पहुँचा और मिसेज सक्सेना का हाथ पकड़ कर पीछे हटाता हुआ शराबियों से बोला- अगर तुम लोगों ने देवियों के साथ जरा भी गुस्ताखी की, तो तुम्हारे हक़ में अच्छा न होगा। कल मैंने तुम लोगों की जान बचायी थी आज इसी डंडे से तुम्हारी खोपड़ी तोड़ कर रख दूँगा। उसके बदले हुए तेवर को देख कर सब के सब नशेबाज घबड़ा गये। वे कुछ कहना चाहते थे कि मिसेज सक्सेना ने गभ्भीर भाव से पूछा- आप यहाँ क्यों आये! मैंने तो आपसे कहा था, अपनी जगह से न हिलिएगा। मैंने तो आपसे मदद न माँगी थी?
जयराम ने लज्जित हो कर कहा- मैं इस नीयत से यहाँ नहीं आया था। एक जरूरत से इधर आ निकला था। यहाँ जमाव देख कर आ गया। मेरे ख्याल में आप अब यहाँ से चलें। मैं आज काँग्रेस कमेटी में यह सवाल पेश करूँगा कि इस काम के लिए पुरुषों को भेजें।
मिसेज सक्सेना ने तीखे स्वर में कहा- आपके विचार में दुनिया के सारे काम मरदों के लिए हैं!
जयराम- मेरा यह मतलब न था।
मिसेज सकसेना- तो आप जा कर आराम से लेटें और मुझे अपना काम करने दें।
जयराम वहीं सिर झुकाये खड़ा रहा। मिसेज सक्सेना ने पूछा- अब आप क्यों खड़े हैं?
जयराम ने विनीत स्वर में कहा- मैं भी यहीं एक किनारे खड़ा रहूंगा।
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