कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
मिसेज़ सक्सेना ने कठोर स्वर में कहा- जी नहीं, आप जायें।
जयराम धीरे-धीरे लदी हुई गाड़ी की भांति चला और आकर फिर उसी लेमनेड की दूकान पर बैठ गया। उसे जोर की प्यास लगी थी। उसने एक गिलास शर्बत बनवाया और सामने मेज पर रख कर विचार में डूब गया; मगर आंखें और कान उसी तरफ़ लगे हुए थे। जब कोई आदमी दूकान पर आता, वह चौंककर उसकी तरफ़ ताकने लगता- वहां कोई नयी बात तो नहीं हो गयी? कोई आध घंटे बाद वही स्वयंसेवक फिर डरा हुआ-सा आकर खड़ा हो गया। जयराम ने उदासीन बनने की चेष्टा करके पूछा- वहां क्या हो रहा है जी?
स्वयंसेवक ने कानों पर हाथ रख कर कहा- मैं कुछ नहीं जानता बाबू जी, मुझसे कुछ न पूछिए।
जयराम ने एक साथ ही नम्र और कठोर होकर पूछा- फिर कोई छेड़छाड़ हुई?
स्वयंसेवक- जी नहीं, कोई छेड़छाड़ नहीं हुई। एक आदमी ने देवी जी को धक्का दे दिया, वे गिर पड़ीं।
जयराम निस्पंद बैठा रहा; पर उसके अंतराल में भूकम्प-सा मचा हुआ था। बोला- उनके साथ के साथ के स्वयंसेवक क्या कर रहे हैं?
‘खड़े हैं, देवी जी उन्हें बोलने ही नहीं देतीं।’
‘तो क्या बड़े जोर से धक्का दिया?’
‘जी हां, गिर पड़ीं। घुटनों में चोट आ गयी। वे आदमी साथ पी रहे थे। जब एक बोतल उड़ गयी, तो उनमें से एक आदमी दूसरी बोतल लेने चला। देवी जी ने रास्ता रोक लिया। बस, उसने धक्का दे दिया। वही जो काला-काला मोटा-सा आदमी है! कलवाले चारों आदमियों की शरारत है।’
जयराम उन्माद की दशा में वहां से उठा और दौड़ता हुए शराबखाने के सामने आया। मिसेज़ सक्सेना सिर पकड़े जमीन पर बैठी हुई थीं और वह काला मोटा आदमी दूकान के कठघरे के सामने खड़ा था। पचासों आदमी जमा थे। जयराम ने उसे देखते ही लपक कर उसकी गर्दन पकड़ ली और इतने जोर से दबाई कि उसकी आंखें बाहर निकल आयीं। मालूम होता था, उसके हाथ फौलाद के हो गये हैं। सहसा मिसेज़ सक्सेना ने आकर उसका फौलादी हाथ पकड़ लिया और भवें सिकोड़ कर बोलीं- छोड़ दो इसकी गर्दन क्या इसकी जान ले लोगे?
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