कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
जयराम शराबखाने के सामने पहुंचा तो देखा, मिसेज़ सक्सेना के चारों स्वयंसेवक दूकान के सामने लेटे हुए हैं और मिसेज़ सक्सेना एक किनारे सिर झुकाये खड़ी हैं। जयराम ने डरते-डरते उनके चेहरे पर निगाह डाली। आंचल पर रक्त की बूंदें दिखाई दीं। उसे फिर कुछ सुध न रही। खून की वह चिनगारियां जैसे उसके रोम-रोम में समा गयीं। उसका खून खौलने लगा, मानो उसके सिर खून सवार हो गया हो। वह उन चारों शराबियों पर टूट पड़ा और पूर जोर के साथ लकड़ी चलाने लगा। एक-एक बूंद की जगह वह एक-एक घड़ा खून बहा देना चाहता था। खून उसे कभी इतना प्यारा न था। खून में इतनी उत्तेजना है, इसकी उसे खबर न थी। वह पूरे जोर से लकड़ी चला रहा था। मिसेज़ सक्सेना कब आकर उसके सामने खड़ी हो गयीं उसे कुछ पता न चला। जब वह जमीन पर गिर पड़ीं, तब उसे जैसे होश आ गया हो। उसने लकड़ी फेंक दी और वहीं निश्चल, निस्पंद खड़ा हो गया, मानों उसका रक्तप्रवाह रुक गया है। चारों स्वयंससेवकों ने दौड़ कर मिसेज़ सक्सेना को पंखा झलना शुरु किया। दूकानदार ठंडा पानी लेकर दौड़ा। एक दर्शक डाक्टर को बुलाने भागा, पर जयराम वहीं बेजान खड़ा था जैसे स्वयं अपने तिरस्कार-भाव का पुतला बन गया हो। अगर इस वक्त कोई उसकी आँखें लाल लोहे से फोड़ देता, तब भी वह चूं न करता। फिर वहीं सड़क पर बैठकर उसने अपने लज्जित, तिरस्कृत, पराजित मस्तक को भूमि पर पटक दिया और बेहोश हो गया। उसी वक्त उस काले मोटे शराबी ने बोतल जमीन पर पटक दी और उसके सिर पर ठंडा पानी डालने लगा। एक शराबी ने लैसंसदार से कहा- तुम्हारा रोजगार अन्य लोगों की जान लेकर रहेगा। अब तो अभी दूसरा ही दिन है।
लैसंसदार ने कहा- कल से मेरा इस्तीफा है। अब स्वेदेशी कपड़े का रोजगार करुंगा, जिसमें जस भी है और उपकार भी।
शराबी ने कहा- घाटा तो बहुत रहेगा।
दूकानदार ने किस्मत ठोंक कर कहा- घाटा-नफा तो जिंदगानी के साथ है।
5. शान्ति - 1
स्वर्गीय देवनाथ मेरे अभिन्न मित्रों में थे। आज भी जब उनकी याद आती है, तो वह रंगरेलियाँ आँखों में फिर जाती हैं, और कहीं एकान्त में जाकर ज़रा देर रो लेता हूँ। हमारे बीच में दो-ढाई सौ मील का अन्तर था। मैं लखनऊ में था, वह दिल्ली में; लेकिन ऐसा शायद ही कोई महीना जाता हो कि हम आपस में न मिल पाते हों। वह स्वच्छन्द प्रकति के विनोदप्रिय, सहृदय, उदार और मित्रों पर प्राण देनेवाले आदमी थे, जिन्होंने अपने और पराये में कभी भेद नहीं किया। संसार क्या है और यहाँ लौकिक व्यवहार का कैसा निर्वाह होता है, यह उस व्यक्ति ने कभी न जानने की चेष्टा की। उनके जीवन में ऐसे कई अवसर आये, जब उन्हें आगे के लिए होशियार हो जाना चाहिए था, मित्रों ने उनकी निष्कपटता से अनुचित लाभ उठाया, और कई बार उन्हें लज्जित भी होना पड़ा; लेकिन उस भले आदमी ने जीवन से कोई सबक लेने की कसम खा ली थी। उनके व्यवहार ज्यों के त्यों रहे- 'जैसे भोलानाथ जिये, वैसे ही भोलानाथ मरे, जिस दुनिया में वह रहते थे वह निराली दुनिया थी, जिसमें संदेह, चालाकी और कपट के लिए स्थान न था- सब अपने थे, कोई गैर न था। मैंने बार-बार उन्हें सचेत करना चाहा; पर इसका परिणाम आशा के विरुद्ध हुआ। जीवन के स्वप्नों को भंग करते उन्हें हार्दिक वेदना होती थी। मुझे कभी-कभी चिंता होती थी कि उन्होंने इसे बन्द न किया, तो नतीजा क्या होगा? लेकिन विडम्बना यह थी कि उनकी स्त्री गोपा भी कुछ उसी सांचे में ढली हुई थी। हमारी देवियों में जो एक चातुरी होती है, जो सदैव ऐसे उड़ाऊ पुरुषों की असावधानियों पर ‘ब्रेक का काम करती है, उससे वह वंचित थी। यहाँ तक कि वस्त्राभूषण में भी उसे विशेष रुचि न थी। अतएव जब मुझे देवनाथ के स्वर्गारोहण का समाचार मिला और मैं भागा हुआ दिल्ली गया, तो घर में बरतन भाँडे और मकान के सिवा और कोई संपति न थी। और अभी उनकी उम्र ही क्या थी, जो संचय की चिन्ता करते। चालीस भी तो पूरे न हुए थे। यों तो लड़कपन उनके स्वभाव में ही था; लेकिन इस उम्र में प्रायः सभी लोग कुछ बेफ्रिक रहते हैं। पहले एक लड़की हुई थी, इसके बाद दो लड़के हुए। दोनों लड़के तो बचपन में ही दगा दे गये थे। लड़की बच रही थी, और यही इस नाटक का सबसे करुण दृश्य था। जिस तरह का इनका जीवन था उसके देखते इस छोटे से परिवार के लिए दो सौ रुपये महीने की जरूरत थी। दो-तीन साल में लड़की का विवाह भी करना होगा। कैसे क्या होगा, मेरी बुद्धि कुछ काम न करती थी।
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