कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
'तो तुम्हारी यह क्या दशा है? बिल्कुल बूढ़ी हो गयी हो।'
'तो अब जवानी लेकर करना ही क्या है? मेरी उम्र भी तो पैंतीस के ऊपर हो गयी?'
'पैंतीस की उम्र तो बहुत नहीं होती।'
'हाँ, उनके लिए, जो बहुत दिन जीना चाहते है। मैं तो चाहती हूँ जितनी जल्द हो सके, जीवन का अन्त हो जाय। बस सुन्नी के ब्याह की चिन्ता है। इससे छुटटी पाऊँ; फिर मुझे ज़िन्दगी की परवाह न रहेगी।'
अब मालूम हुआ कि जो सज्जन इस मकान में किराएदार हुए थे, वह थोड़े दिनों के बाद तबदील होकर चले गये और तब से कोई दूसरा किरायदार न आया। मेरे हृदय में बरछी सी चुभ गयी। इतने दिनों इन बेचारों का निर्वाह कैसे हुआ, यह कल्पना ही दुःखद थी।
मैंने विरक्त मन से कहा- लेकिन तुमने मुझे सूचना क्यों न दी? क्या मैं बिलकुल और हूँ?
गोपा ने लज्जित होकर कहा- नहीं नहीं, यह बात नहीं है। तुम्हें गैर समर्थांगी तो अपना किसे समझूगी? मैंने समझा परदेश में तुम खुद अपने झमेले में पड़े होगे, तुम्हें क्यों सताऊँ? किसी न किसी तरह दिन कट ही गये। घर में और कुछ न था तो थोड़े से गहने तो थे ही। अब सुनीता के विवाह की चिन्ता है। पहले मैंने सोचा था, इस मकान को निकाल दूंगी, बीस-बाइस हज़ार मिल जायेंगे। विवाह भी हो जायगा और कुछ मेरे लिए बचा भी रहेगा; लेकिन बाद को मालूम हुआ कि मकान पहले ही रेहन हो चुका है और सूद मिलाकर उस पर बीस हज़ार हो गये हैं। महाजन ने इतनी ही दया क्या कम की कि मुझे घर से निकाल न दिया। इधर से तो अब कोई आशा नहीं है। बहुत हाथ-पाँव जोड़ने पर, संभव है, महाजन से दो-ढाई हज़ार मिल जायँ। इतने में क्या होगा? इसी फिक्र में घुली जा रही हैं। लेकिन, मैं भी इतनी मतलबी हूँ, न तुम्हें हाथ-मुँह धोने को पानी दिया, न कुछ जलपान लायी और अपना दुखड़ा ले बैठी। अब आप कपड़े उतारिए और आराम से बैठिए। कुछ खाने को लाऊँ, खा लीजिए, तब बातें हों। घर पर तो सब कुशल है?
मैंने कहा- मैं तो सीधे बम्बई से यहाँ आ रहा हूँ। घर कहाँ गया?
गोपा ने मुझे तिरस्कार भरी आँखों से देखा; पर उस तिरस्कार की आड़ में घनिष्ठ आत्मीयता बैठी झाँक रही थी। मुझे ऐसा जान पड़ा, उसके मुख की झुर्रियाँ मिट गयी हैं। पीछे मुख पर हलकी-सी लाली दौड़ गई। उसने कहा- इसका फल यह होगा कि तुम्हारी देवीजी तुम्हें कभी यहाँ न आने देंगी।
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