कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
'मैं किसी का गुलाम नहीं हूँ।'
'किसी को अपना गुलाम बनाने के लिए पहले खुद भी उसका गुलाम बनना पढ़ता है।'
शीतकाल की संध्या देखते-ही-देखते दीपक जलाने लगी। सुन्नी लालटेन लेकर कमरे में आयी। दो साल पहले की अबोध और कृशतनु बालिका रूपवती युवती हो गयी थी, जिसकी हर एक चितवन, हर एक बात, उसकी गौरवशील प्रकति का पता दे रही थी। जिसे मैं गोद में उठाकर प्यार करता था, उसकी तरफ़ आज आँखें न उठा सका और वह जो मेरे गले से लिपट कर प्रसन्न होती थी, आज मेरे सामने खड़ी भी न रह सकी। जैसे मुझसे कोई वस्तु छिपाना चाहती है, और जैसे मैं उस वस्तु को छिपाने का अवसर दे रहा हूँ।
मैंने पूछा- अब तुम किस दरजे में पहुँची सुन्नी? उसने सिर झुकाये हुए जवाब दिया- दसवें में हूँ। 'घर का भी कुछ काम-काज करती हो।'
'अम्माँ जब करने भी दें।'
गोपा बोली- मैं नहीं करने देती या खुद किसी काम के नगीच नहीं जातीं?
सुन्नी मुँह फेर कर हँसती हुई चली गयी। माँ की दुलारी लड़की थी। जिस दिन वह गृहस्थी का काम करती, उस दिन शायद गोपा रो-रो कर आँखें फोड़ लेती। वह खुद लड़की को कोई काम न करने देती थी, मगर सबसे शिकायत करती थी कि वह कोई काम नहीं करती। यह शिकायत भी उसके प्यार का ही एक करिश्मा था। हमारी मर्यादा हमारे बाद भी जीवित रहती है।
मैं भोजन करके लेटा, तो गोपा ने फिर सुन्नी के विवाह की तैयारियों की चर्चा छेड़ दी। इसके सिवा उसके पास और बात ही क्या थी। लड़के तो बहुत मिलते हैं, लेकिन कुछ हैसियत भी तो हो। लड़की को यह सोचने का अवसर क्यों मिले कि दादा होते, तो शायद मेरे लिए इससे अच्छा घर-वर ढूँढ़ते। फिर गोपा ने डरते-डरते लाला मदारीलाल के लड़के का जिक्र किया।
मैंने चकित होकर उसकी तरफ देखा। मदारीलाल पहले इंजीनियर थे, अब पेंशन पाते थे। लाखों रुपया जमा कर लिये थे; पर अब तक उनके लोभ की प्यास न बुझी थी। गोपा ने घर भी वह छाँटा, जहाँ उसकी रसाई कठिन थी।
मैंने आपति की- मदारीलाल तो बड़ा दुर्जन मनुष्य है।
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