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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801
आईएसबीएन :9781613015384

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


मैं अपना सा मुँह ले कर रह गया।

जून में विवाह हो गया। गोपा ने बहुत कुछ दिया और अपनी हैसियत से बहुत ज्यादा दिया; लेकिन फिर भी, उसे सन्तोष न था। आज सुन्नी के पिता होते तो न जाने क्या करते। बराबर रोती रही।

जाड़ों में मैं फिर दिल्ली गया। मैंने समझा था कि अब गोपा सुखी होगी। लड़की का घर और वर दोनों आदर्श हैं। गोपा को इसके सिवा और क्या चाहिए; लेकिन सुख उसके भाग्य में ही न था। ।

अभी कपड़े भी न उतारने पाया था कि उसने अपना दुखड़ा शुरू कर दिया- भैया, घर द्वार सब अच्छा है, सास ससुर भी अच्छे हैं, लेकिन जमाई निकम्मा निकला। सुन्नी बेचारी रो-रोकर दिन काट रही है। तुम उसे देखो, तो पहचान न सको। उसकी परछाई मात्र रह गयी है। अभी कई दिन पिछली बार उसकी दशा देखकर मुझसे रहा न गया। बोला- गोपा देवी, अगर मरना ही चाहती हो, तो विवाह हो जाने के बाद मरो। मुझे भय है कि तुम उसके पहले ही न चल दो।

गोपा का मुरझाया हुआ मुख प्रमुदित हो उठा। बोली- इसकी चिन्ता न करो भैया, विधवा की आयु बहुत लंबी होती है। तुमने सुना नहीं, रॉड मरे न खंडहर ढहे। लेकिन मेरी कामना यह है कि सुन्जी का ठिकाना लगाकर मैं भी चल दूँ। अब और जी कर क्या करूँगी, सोचो। क्या करूँ, अगर किसी तरह का विहन पड़ गया, तो किसकी बदनामी होगी। इन चार महीनों में मुश्किल से घंटा-भर सोती हूँगी। नींद ही नहीं आती; पर मेरा चित प्रसन्न है। मैं मरूँ या जीऊँ, मुझे यह सन्तोष तो होगा कि सुन्नी के लिए उसका बाप जो कर सकता था, वह मैंने कर दिया। मदारीलाल ने अपनी सज्जनता दिखायी, तो मुझे भी तो अपनी नाक रखनी है।

एक देवी ने आकर कहा- बहन, ज़रा चलकर देख लो, चाशनी ठीक हो गयी है या नहीं। गोपा उसके साथ चाशनी की परीक्षा करने गयी और एक क्षण के बाद आकर बोली- जी चाहता है, सिर पीट लूँ। तुमसे ज़रा बात करने लगी, उधर चाशनी इतनी कड़ी हो गयी कि लडडू दाँतों से लड़ेंगे। किससे क्या!

मैंने चिढ़ कर कहा- तुम व्यर्थ का झंझट कर रही हो। क्यों नहीं किसी हलवाई को बुलाकर मिठाइयों का ठेका दे देती? फिर तुम्हारे यहाँ मेहमान ही कितने आयेंगे, जिनके लिए यह तूमार बाँध रही हो। दस पाँच की मिठाई उनके लिए बहुत होगी। गोपा ने व्यथित नेत्रों से मेरी ओर देखा। मेरी यह आलोचना उसे बुरी लगी। उन दिनों उसे बातबात पर क्रोध आ जाता था। बोली- भैया, तुम ये बातें न समझोगे। तुम्हें न माँ बनने का अवसर मिला, न पत्नी बनने का। सुन्नी के पिता का कितना नाम था, कितने आदमी उनके दम से जीते थे, क्या यह तुम नहीं जानते, वह पगड़ी मेरे ही सिर तो बंधी है। तुम्हें विश्वास न आयेगा, नास्तिक जो ठहरे, पर मैं तो उन्हें सदैव अपने अन्दर बैठा हुआ पाती हूँ, जो कुछ कर रहे हैं वह कर रहे हैं। मैं मन्दबुद्धि स्त्री भला अकेली क्या कर देती। वही मेरे सहायक हैं वही मेरे प्रकाश हैं। यह समझ लो कि यह देह मेरी है; पर इसके अन्दर जो आत्मा है वह उनकी है। जो कुछ हो रहा है उनके पुण्य आदेश से हो रहा है तुम उनके मित्र हो। तुमने अपने सैकड़ों रुपये खर्च किये और इतना हैरान हो रहे हो। मैं तो उनकी सहगामिनी हूँ, लोक में भी, परलोक में भी।

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