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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801
आईएसबीएन :9781613015384

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


जब केदार टेनिस खेलने गया, तो मैंने मदारीलाल से कहा- केदार बाबू तो बहुत सच्चरित्र जान पड़ते हैं, फिर स्त्री पुरुष में इतना मनोमालिन्य क्यों हो गया?

मदारीलाल ने एक क्षण विचार कर के कहा- इसका कारण इसके सिवा और क्या बताऊँ कि दोनों अपने माँ-बाप के लाइले हैं, और प्यार लड़कों को अपने मन का बना देता है। मेरा सारा जीवन संघर्ष में कटा। अब जा कर जरा शान्ति मिली है। भोग-विलास का कभी अवसर ही न मिला। दिन भर परिश्रम करता था, संध्या को पड़ कर सो रहता था। स्वास्थ्य भी अच्छा न था; इसलिए बार-बार यह चिन्ता सवार रहती थी कि कुछ संचय कर लूँ। ऐसा न हो कि मेरे पीछे बाल बच्चे भीख माँगते फिरें। नतीजा यह हुआ कि इन महाशय को मुफ़्त का धन मिला। सनक सवार हो गयी। शराब उड़ने लगी। फिर ड्रामा खेलने का शौक़ हुआ। धन की कमी थी ही नहीं, उस पर माँबाप के अकेले बेटे। उनकी प्रसन्नता ही हमारे जीवन को स्वर्ग था। पढ़ना-लिखना तो दूर रहा, विलास की इच्छा बढ़ती गयी। रंग और गहरा हुआ, अपने जीवन का ड्रामा खेलने लगे। मैंने यह रंग देखा तो मुझे चिन्ता हुई। सोचा, ब्याह कर दूं, ठीक हो जायगा। गोपा देवी का पैगाम आया, तो मैंने तुरन्त स्वीकार कर लिया। मैं सुन्नी को देख चुका था। सोचा, ऐसी रूपवती पत्नी पाकर इनका मन स्थिर हो जायगा; पर वह भी लाड़ली लड़की थी-हठीली, अबोध, आदर्शवादिनी। सहिष्णुता तो उसने सीखी ही न थी। समझौते का जीवन में क्या मूल्य है, इसकी उसे खबर ही नहीं। लोहा लोहे से लड़ गया। वह अभिमान से उसे पराजित करना चाहती है या उपेक्षा से, यही रहस्य है। और साहब, मैं तो बहू को ही अधिक दोषी समझता हूँ। लड़के प्रायः मनचले होते हैं। लड़कियाँ स्वाभाव से ही सुशील होती हैं और अपनी ज़िम्मेदारी समझती हैं। उनकी सेवा, त्याग और प्रेम ही उनका अस्त्र है, जिससे वे पुरुष पर विजय पाती हैं। उसमें ये गुण हैं नहीं। डोंगा कैसे पार होगा, ईश्वर ही जाने।

सहसा सुन्नी अंदर से आ गयी। बिल्कुल अपने चित्र की रेखा सी, मानो मनोहर संगीत की प्रतिध्वनि हो। कुंदन तपकर भस्म हो गया था। मिटी हुई आशाओं का इससे अच्छा चित्र नहीं हो सकता। उलाहना देती हुई बोली- आप न जाने कब से बैठे हुए हैं, मुझे ख़बर तक नहीं और शायद आप बाहर ही बाहर चले भी जाते?

मैंने आँसुओं के वेग को रोकते हुए कहा- नहीं सुन्नी, यह कैसे हो सकता था तुम्हारे पास आ ही रहा था कि तुम स्वयं आ गयी।

मदारीलाल कमरे के बाहर अपनी कार की सफाई कराने लगे। शायद मुझे सुन्नी से बातचीत करने का अवसर देना चाहते थे।

सुन्नी ने पूछा- अम्माँ तो अच्छी तरह हैं?

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