कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
‘हाँ अच्छी हैं। तुमने अपनी यह क्या गत बना रखी है?'
'मैं तो बहुत अच्छी तरह से हूँ।'
'यह बात क्या है? तुम लोगों में यह क्या अनबन है। गोपा देवी प्राण दिये डालती हैं। तुम खुद मरने की तैयारी कर रही हो। कुछ तो विचार से काम लो।'
सुन्नी के माथे पर बल पड़ गये- आपने नाहक यह विषय छेड़ दिया चाचा जी! मैंने तो यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि मैं अभागिन हूँ। बस, उसका निवारण मेरे बूते से बाहर है। मैं उस जीवन से मृत्यु को कहीं अच्छा समझती हूँ, जहाँ अपनी क़दर न हो। मैं व्रत के बदले में व्रत चाहती हूँ। जीवन का कोई दूसरा रूप मेरी समझ में नहीं आता। इस विषय में किसी तरह का समझौता करना मेरे लिए असम्भव है। नतीजे की मैं परवाह नहीं करती।
'लेकिन...'
'नहीं चाचा जी, इस विषय में अब कुछ न कहिए, नहीं तो मैं चली जाऊँगी।'
'आखिर सोचो तो...'
‘मैं सब सोच चुकी और तय कर चुकी। पशु को मनुष्य बनाना मेरी शक्ति से बाहर है।'
इसके बाद मेरे लिए अपना मुँह बन्द कर लेने के सिवा और क्या रह गया था?
मई का महीना था। मैं मंसूरी गया हुआ था कि गोपा का तार पहुँचा- 'तुरन्त आओ, ज़रूरी काम है।' मैं घबरा तो गया; लेकिन इतना निश्चित था कि कोई दुर्घटना नहीं हुई है। दूसरे ही दिन दिल्ली जा पहुँचा। गोपा मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी, निःस्पन्द, मूक, निष्प्राण, जैसे तपेदिक़ की रोगी हो।
मैंने पूछा- कुशल तो है, मैं तो घबरा उठा।
उसने बुझी हुई आँखों से देखा और बोली- सच!
‘सुन्नी तो कुशल से है?'
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