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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801
आईएसबीएन :9781613015384

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


मेरी शोक मुद्रा देख कर उसने मातृवत् प्रेम से मेरा हाथ पकड़ लिया और बोली- आज तो तुम्हें सारे दिन रोते ही कटा। अर्थी के साथ बहुत से आदमी रहे होंगे। मेरे जी में भी आया कि चलकर सुन्नी के अन्तिम दर्शन कर लूँ। लेकिन, मैंने सोचा-जब सन्नी ही न रही, तो उसकी लाश में क्या रखा है! न गयी।

मैं विस्मय से गोपा का मुंह देखने लगा। तो इसे यह शोक-समाचार मिल चुका है। फिर भी वह शान्ति! और यह अविचल धैर्य! बोला- अच्छा किया न गयीं, रोना ही तो था।

'हाँ और क्या? रोयी यहाँ भी, लेकिन तुमसे सच कहती हूँ, दिल से नहीं रोयी। न जाने कैसे आँसू निकल आये। मुझे तो सुन्नी की मौत से प्रसन्नता हुई। अपनी ‘मान-मर्यादा’ लिए संसार से विदा हो गयी, नहीं तो न जाने क्या-क्या देखना पड़ता। इसलिए और भी प्रसन्न हूँ कि उसने अपनी आन निभा दी। स्त्री के जीवन में प्यार न मिले; तो उसका अन्त हो जाना ही अच्छा। तुमने सुन्नी की मुद्रा देखी थी? लोग कहते हैं, ऐसा जान पड़ता था- मुस्करा रही है। मेरी सुन्नी सचमुच देवी थी। भैया, आदमी इसलिए थोड़े ही जीना चाहता है कि रोता रहे। जब मालूम हो गया कि जीवन में दुःख के सिवा कुछ नहीं है, तो आदमी जीकर क्या करे। किस लिए जिये? खाने और सोने और मर जाने के लिए? यह मैं नहीं कहती कि मुझे सुन्नी की याद न आयेगी और मैं उसे याद करके रोऊँगी नहीं। लेकिन वह शोक के आँसू न होंगे। हर्ष के आँसू होंगे। बहादुर बेटे की उसकी वीरगति पर प्रसन्न होती है! सुन्नी की मौत में क्या कुछ कम गौरव है? मैं आँसू बहाकर उस गौरव का अनादर कैसे करूँ? वह जानती है, और चाहे सारा संसार उसकी निंदा करे, उसकी माता सराहना ही करेगी। उसकी आत्मा से यह आनन्द भी छीन लूँ? लेकिन अब रात ज्यादा हो गयी है। ऊपर जा कर सो रहो। मैंने तुम्हारी चारपाई बिछा दी है; मगर देखो, अकेले पड़े-पड़े रोना नहीं। सुन्नी ने वही किया, जो उसे करना चाहिए था। उसके पिता होते, तो आज सुन्नी की प्रतिमा बनाकर पूजते।'

मैं ऊपर जा कर लेटा, तो मेरे दिल का बोझ बहुत हल्का हो गया था, किन्तु रह-रहकर यह संदेह हो जाता था कि गोपा की यह शक्ति उसकी अपार व्यथा का ही रूप तो नहीं है।

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6. शान्ति-2

जब मैं ससुराल आई, तो बिलकुल फूहड़ थी। न पहनने-ओढ़ने का सलीका, न बातचीत करने का ढंग। सिर उठाकर किसी से बातचीत न कर सकती थी। आँखें अपने आप झपक जाती थीं। किसी के सामने जाते शर्म आती, स्त्रियों तक के सामने बिना घूंघट के झिझक होती थी। मैं कुछ हिन्दी पढ़ी हुई थी; पर उपन्यास, नाटक आदि के पढ़ने में आनन्द न आता था। फ़ुर्सत मिलने पर रामायण पढ़ती। उसमें मेरा मन बहुत लगता था। मैं उसे मनुष्य-कृत नहीं समझती थी। मुझे पूरा-पूरा विश्वास था कि उसे किसी देवता ने स्वयं रचा होगा। मैं मनुष्यों को इतना बुद्धिमान और सहृदय नहीं समझती थी। मैं दिन भर घर का कोई न कोई काम करती रहती। और कोई काम न रहता तो चर्खे पर सूत कातती। अपनी बूढ़ी सास से थर-थर काँपती थी। एक दिन दाल में नमक अधिक हो गया। ससुर जी ने भोजन के समय सिर्फ़ इतना ही कहा- ‘नमक जरा अंदाज़ से डाला करो।’ इतना सुनते ही हृदय काँपने लगा। मानो मुझे इससे अधिक कोई वेदना नहीं पहुचाई जा सकती थी।

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