कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
सिपाही- ''तुम्हारे आखें नहीं हैं क्या?''
चिंता.- ''तुम इतना रोब क्यों जमाते हो, क्या हमें कोई भिक्षुक समझा है? अगर मोटेराम का यही घर हो, तो जाकर कहो पं. चितामणिजी उनसे मिलने आए हैं। धौंस दूसरों पर जमाना।''
सिपाही- ''कार्ड लाओ।''
चिंतामणि- ''कैसा कार्ड?''
सिपाही- ''व्यवस्थापकजी बिना कार्ड देखे किसी से नहीं मिलते।''
चिंता. - ''तुम हमारा नाम तो बताओ जाकर।''
सिपाही- ''ऐसे क्या नाम बताऊँ। मुझ पर बिगड़ने लगें तब।''
चिंतामणि ने जब देखा कि सिपाही की खुशामद से काम न चलेगा, तो द्वार पर खड़े होकर ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगे- ''मोटेराम? ओ मोटेराम!''
सिपाही ने चिंतामणि का हाथ पकड़कर हटाते हुए कहा- ''यहाँ चिल्लाने का हुक्म नहीं है।''
चिंतामणि की क्रोधाग्नि भड़क उठी। वह उस सिपाही को अपने ब्रह्मतेज का स्वरूप दिखाना ही चाहते थे कि पं. मोटेरामजी अंदर से निकल आए और चिंतामणि को देखकर बोले- ''अरे! तुम हो चिंतामणि। कार्ड क्यों न भेजवा दिया। तुमने साइन-बोर्ड तो देखा होगा-मैं 'सोना' नामक पत्रिका का संपादक हूँ। आओ- अंदर आओ। मैं बिना कार्ड देखे किसी से नहीं मिलता, लेकिन तुम अपने पुराने मित्र हो, तुम्हारे लिए कोई रोक-टोक नहीं।''
चिंतामणि अंदर दाखिल हुए तो कुछ और ही छटा देखी। जिस कोठरी में सोना बैठती थी, वहाँ अब मेज और कुर्सियाँ थीं। रसोई के कमरे में पत्रों का ढेर लगा हुआ था। बरामदों में कर्मचारी लोग बैठे हुए बड़े-बड़े रजिस्टर लिख रहे थे।
जब दोनों आदमी कुर्सियों पर बैठ गए तो मोटेरामजी ने कहा- ''तुम जब तीर्थयात्रा करने चले गए तो मैंने एक पत्रिका निकाल ली।''
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