कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
चिंता.- ''अच्छा तो 'सोना' पत्रिका का नाम है। तुम्हीं इसका संपादन करते हो!''
मोटे.- ''जबसे मैंने यह पत्रिका निकाली है, हिंदी-संसार में हलचल पड़ गई है। अभी इसे निकाले तीन महीने भी पूरे नहीं हुए, लेकिन ग्राहक-संख्या 25 हजार से ऊपर हो गई। धड़ाधड़ आर्डर चले आ रहे हैं। डाकखानेवालों ने कर्मचारियों की संख्या बढ़ा दी है।''
चिंता.- ''झूठ बोलते हो, सरासर झूठ। सोलहो आने झूठ। 25 हजार! ईश्वर से भी नहीं डरते। भला 2500 कहते तो एक बात भी थी। झूठ भी बोलने वैठे, तो बोलना न आया।''
मोटेराम ने हँसकर कहा- ''यही और लोग भी कहते हैं। जो सुनता है दंग रह जाता है, पर यहाँ तो सच्चा काम रखते हैं। जिसका जी चाहे रजिस्टर देख ले। अगर 25 हजार ग्राहक न निकलें, तो जो चोर की सजा वह मेरी। और अभी तो आरंभ है। अगर साल-भर में एक लाख तक संख्या न पहुँचा दूँ तो मोटेराम नहीं। ग्राहकों की यहाँ कमी नहीं है, कमी है काम करनेवालों की। सच्चे ढंग से काम करनेवाला चाहिए, फिर देखो कैसे ग्राहक नहीं आते। यह सब कुछ विज्ञापन का खेल है। दिखाऊँ रजिस्टर।''
चिंता.- ''रजिस्टर में कोई कार्रवाई कर ली होगी, फ़र्ज़ी नाम लिख लिए होंगे, बीच में कई-कई नंबर छोड़ गए होंगे। मैं इतना मान सकता हूँ कि तुम बड़े कार्य-कुशल हो। मैं तो इसका चौथाई भी न कर सकता, लेकिन 25 हजार की संख्या नहीं मिल सकती। तुम्हें इतने रुपए कहाँ से मिल गए?''
मोटे.- ''रुपए की न कहो, सब ईश्वर की दया है। यही तो एक ऐसा साधन है जिससे विना एक कौड़ी घर की लगाए, तुम एक बहुत बड़ा व्यवसाय खड़ा कर सकते हो। बस जरा ढंग चाहिए। कौड़ी घर से लगाने की कोई जरूरत नहीं। कागज़वाले से उधार कागज ले लिया, प्रेसवालों से उधार छपाई करा ली, बस बेड़ा पार। रुपए मिले, तो प्रेस और काग़ज़ को दो, नहीं तो कानों में तेल डालकर बैठ रहो। कोई तुमसे क्या ले लेगा।''
चिंता.- ''कागज़वाले और प्रेसवाले उधार कैसे देते हैं? ''
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