कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
बाजबहादुर- इसका तुम्हें अधिकार है।
दस बजे जब मदरसा लगा और मुंशी भवानीसहाय ने बाग की यह दुर्दशा देखी तो क्रोध से आग हो गए। बाग उजड़ने का इतना खेद न था, जितना लड़कों की शरारत का। यदि किसी साँड़ ने यह दुष्कृत्य किया होता, तो वह केवल हाथ मलकर रह जाते। किंतु लड़कों के इस अत्याचार को सहन न कर सके। ज्यों ही लड़के दरजे में बैठ गए, वह तेवर बदले हुए आए और पूछा- यह बाग किसने उजाड़ा है?
कमरे में सन्नाटा छा गया। अपराधियों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। मिडिल कक्षा के 25 विद्यार्थियों में कोई ऐसा न था, जो इस घटना को न जानता हो किंतु किसी में यह साहस न था कि उठकर साफ-साफ कह दे। सबके-सब सिर झुकाए मौन धारण किए बैठे थे।
मुंशीजी का क्रोध और भी प्रचंड हुआ। चिल्लाकर बोले- मुझे विश्वास है कि यह तुम्हीं लोगों में से किसी की शरारत है। जिसे मालूम हो, स्पष्ट कह दे, नहीं तो मैं एक सिरे से पीटना शुरू करूँगा, फिर कोई यह न कहे कि हम निरपराध मारे गए।
एक लड़का भी न बोला। वही सन्नाटा! मुंशीजी- देवीप्रसाद, तुम जानते हो?
देवी- जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।
'शिवदत्त, तुम जानते हो?'
'जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।'
'बाजबहादुर, तुम कभी झूठ नहीं बोलते, तुम्हें मालूम है?'
बाजबहादुर खड़ा हो गया, उसके मुख-मंडल पर वीरत्व का प्रकाश था। नेत्रों में साहस झलक रहा था। बोला- जी हाँ!
मुंशीजी ने कहा- शाबाश!
अपराधियों ने बाजबहादुर की ओर रक्तवर्ण आँखों से देखा और मन में कहा- अच्छा!
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