कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
चिंता.- ''क्यों मित्र हमीं से यह परदा? मैंने तुम्हैं सदैव अपना गुरु माना है और अब भी अपना बड़ा भाई समझता हूँ और तुम मुझी से ऐसी कृपणता करते हो।''
मोटे.- ''अच्छा वचन दो कि तुम पत्रिका के 1०० ग्राहक बना लाओगे।''
चिंता.- ''तुम्हारी आज्ञा मैंने कभी टाली है!''
मोटे.- '' अच्छा तो सुनो, वह मूल मंत्र है डींग मारना। ऐसी डींग मारो कि दूसरे प्रभावित हो जाएँ। कोई कितना ही अविश्वास प्रकट करे, कितनी ही हँसी उड़ावे, कुछ परवा मत करो। तुम्हारे चले आने के बाद वह अपने मन में सोचेगा कि अगर इसने रुपए मैं 1 आना भी सत्य कहा है, तब भी कुछ कम नहीं। बस जमीन और आसमान के क़ुलाबे मिला दो। ग्राहक-संख्या कभी एक लाख से कम न बतलाओ। खूब ज़ोर-शोर से कहो कि हमने पाश्चात्य विद्वानों से लेख मँगवाने का आयोजन किया है। अपने चित्रों और लेखों को अद्वितीय सिद्ध करो, फिर देखो ग्राहक कैसे नहीं पंजे में आता। तुम जरा भी झिझके और काम बिगड़ा। जरा देर के लिए अपने को भूल जाओ और यह समझो कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह अक्षरश: सत्य है। तुमने मेरी पत्रिका देखी नहीं, इसमें समाज-सुधार पर बडे स्वतंत्र लेख रहते हैं।''
चिंता.- ''समाज-सुधार पर! तुम समाज-सुधारक कब से हुए? तुम तो बाजार की पूरियाँ तक नहीं खाते।''
मोटे.- ''अजी यह न पूछो मैं क्या खाता हूँ और कैसे रहता हूँ। इस कमरे में आकर मैं समाज का कट्टर सुधारक हो जाता हूँ और घर में जाकर सुधार का कट्टर शत्रु। बिना इस उठती चाल के सफलता कहाँ। तुमको आश्चर्य होगा मैंने विधवा-विवाह का समर्थन किया है, अछूतोद्धार का बीड़ा उठाया है और शुद्धि का बिगुल बजाया है। दिल में समझता हूँ कि इन सुधारों से हिंदू समाज रसातल की ओर जा रहा है, पर करूँ क्या, किसी तरह बाल-बच्चों का पालन-पोषण तो करना है।''
चिंता.- ''यार तुम बड़े धूर्त हो, मान गया तुम्हारी खोपड़ी को।''
मोटे.- ''अजी अभी देखते तो जाव! अब की विज्ञापन दूँगा कि हमारी पत्रिका के बारहों अंक विशेषांक होंगे। संसार के बड़े-से-बड़े पुरुषों को उनका संपादक लिख दूँगा। किसी अंक का संपादन डाक्टर टैगोर करेंगे, किसी अंक का श्रीमान् डाँक्टर इकबाल तथा किसी अंक का श्री शंकराचार्य, किसी का मुसोलिनी, किसी का क़ैसर, किसी का लायड जार्ज। फिर देखो इस विज्ञापन की कैसी धूम मचती है।''
चिंता.- ''और यदि इन महानुभावों ने अपना नाम देना स्वीकार न किया तो?
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