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प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803
आईएसबीएन :9781613015407

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


मोटे.- (हँसकर) ''यह दूसरी विद्या है जो ईश्वर की देन है। यह पढ़ने से नहीं आती, न रटने से कंठस्थ होती है। उसे पूर्व-जन्म का संस्कार ही कह सकते हो। काग़ज़वाले सेठ सुद्धीलाल को जानते ही हो, कई बार उसके यहाँ हम-तुम इच्छा-पूर्ण भोजन कर चुके हैं। भक्त जीव है। उससे कागज लिया। माँगने की देर थी। 5०० रुपए का कागज ठेलों पर लदवा दिया। छापाखाना अभी अपना नहीं है। एक दूसरे छापेखाने में छपवा लेता हूँ। पूरे दो दर्जन एजेंट रख छोड़े हैं। वह नगरों और ग्रामों में जा-जाकर मेरी पत्रिका का प्रचार करते हैं। कर्मचारियों के साथ मेरा नियम बड़ा कठोर है। उन्हें टालबाज़ी अथवा कामचोरी करते देखकर मैं आपे से बाहर हो जाता हूँ। मेरी देह में आग-सी लग जाती है। यही जी चाहता है कि इन्हें कच्चा ही चबा जाऊँ, नमक भी न माँगूँ। कितने ही तो छोड़कर भाग खड़े हुए। इसमें भी मेरा ही लाभ रहा। उनका वेतन न देना पड़ा। कितनों ही को पीट चुका हूँ। मुझे देखकर सब थर-थर काँपते हैं। अभी दस-पाँच एजेंटों की और आवश्यकता है। अगर तुम चाहो तो अपने दो-चार मित्रों को रखा दो। अच्छा फ़ायदा है।''

चिंता.- ''मेरे मित्रों में ऐसे बहुत कम हैं जो तुम्हारी इस अनीति को सहन कर सकें, इधर तुमने घूँसा ताना और उधर वह तुम्हें ले पड़ेंगे। मगर यह तो बताओ, तुम पत्रिका का संपादन कैसे कर लेते हो?''

मोटे.- ''संपादन कैसे कर लेता हूँ! बुद्धि से और कैसे?''

चिंता.- ''तुम्हारी बुद्धि तो बहुत तीव्र कभी न थी।''

मोटे.- ''तुम मेरी बुद्धि की तीव्रता का अनुमान क्या खाके करोगे। जो आदमी बिना गाँठ की झझीकौड़ी खर्च किए इतना बड़ा कार्यालय खोल दे, इतनी बड़ी पत्रिका का संपादक हो जाए, जिसका नाम देश में फैल जाए, उसके बुद्धिमान् होने में तुम जैसे गधों के सिवा और किसे संदेह हो सकता है।''

चिंता.- ''यह तो काइयाँपन है। मैं इसे बुद्धि नहीं कहता।''

मोटे.- ''ओह! तुम चाहे काइयाँपन कहो, चाहे झाँसेबाज़ी कहो, चाहे धूर्तता कहो; पर मेरे कोष में उसका नाम बुद्धि है। कोई कितना ही धुरंधर विद्वान अपना लेख भेजे, मैं उसमें कुछ-न-कुछ संशोधन अवश्य करूँगा। दो-चार जगह लाल कलम फेर ही देता हूँ। इससे विद्वानों पर आतंक जम जाता है। दो-तीन अनुवादक रख छोड़े हैं। वे बँगला, गुजराती आदि भाषाओं के लेख और टिप्पणियाँ अनुवाद कर लेते हैं। उन्हें मैं अपने संपादकीय विचारों में देता हूँ। उन पर लेखक का नाम तो होता नहीं, लोग समझते है कि शास्त्रीजी ही ने लिखा है। किसे इतना अवकाश है कि मेरे लेखों की छान-बीन करता फिरे। मैंने बहुत दिनों के बाद सांसारिक सफलता का मूलमंत्र खोज पाया है, मगर तुमसे न बताऊँगा।''

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