कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
चलते-चलते करनफूल को ऐसा ठुकराया कि आँगन में जा गिरा। राजा ने जल्दी से करनफूल उठा लिया और क्रोध में भरा हुआ चल दिया।
रोग दिन-पर-दिन बढ़ता गया। ठिकाने से दवा-दारू होती, तो शायद अच्छा हो जाता; मगर अकेली मुलिया क्या-क्या करती? दरिद्रता में बीमारी कोढ़ का खाज है। आखिर एक दिन परवाना आ पहुँचा। मुलिया घर का काम-धन्धा करके आयी, तो देखा कल्लू की साँस चल रही है। घबड़ाकर बोली- 'क़ैसा जी है तुम्हारा? '
कल्लू ने सजल और दीनता-भरी आँखों से देखा और हाथ जोड़कर सिर नीचा कर लिया। यही अन्तिम बिदाई थी।
मुलिया उसके सीने पर सिर रखकर रोने लगी और उन्माद की दशा में उसके आहत हृदय से रक्त की बूँदों के समान शब्द निकलने लगे- 'तुमसे इतना भी न देखा गया, भगवन्! उस पर न्यायी और दयालु कहलाते हो!
इसीलिए तुमने जन्म दिया! यही खेल खेलने के लिए! हाय नाथ! तुम तो इतने निष्ठुर न थे! मुझे अकेली छोड़कर चले जा रहे हो! हाय! अब कौन मूला कहकर पुकारेगा! अब किसके लिए कुएं से पानी खींचूँगी! किसे बैठाकर खिलाऊँगी, पंखा डुलाऊँगी! सब सुख हर लिया, तो मुझे भी क्यों नहीं उठा लेते!'
सारा गाँव जमा हो गया। सभी समझा रहे थे। मुलिया को धैर्य न होता था। यह सब मेरे कारण हुआ; यह बात उसे नहीं भूलती। हाय! हाय! उसे भगवान् ने सामर्थ्य दिया होता, तो आज उसका सिरताज यों उठ जाता?
शव की दाह-क्रिया की तैयारियाँ होने लगीं। कल्लू को मरे छ: महीने हो गये। मुलिया अपना कमाती है, खाती है और अपने घर में पड़ी रहती है। दिन-भर काम-धंधों से छुट्टी नहीं मिलती। हाँ, रात को एकान्त में रो लिया करती है।
उधर राजा की स्त्री मर गयी, मगर दो-चार दिन के बाद वह फिर छैला बना घूमने लगा। और भी छूटा सांड़ हो गया। पहले स्त्री से झगड़ा हो जाने का कुछ डर था। अब वह भी न रहा। अबकी नौकरी पर से लौटा, तो सीधे मुलिया के घर पहुँचा। और इधर-उधर की बातें करने के बाद बोला- 'भाभी, अब तो मेरी अभिलाषा पूरी करोगी या अभी और कुछ बाकी है? अब तो भैया भी नहीं रहे। इधर मेरी घरवाली भी सिधारी! मैंने तो उसका गम भुला दिया। तुम कब तक भैया के नाम को रोती रहोगी?'
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