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प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803
आईएसबीएन :9781613015407

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


मुलिया ने घृणा से उसकी ओर देखकर कहा- 'भैया नहीं रहे, तो क्या हुआ; भैया की याद तो है, उनका प्रेम तो है, उनकी सूरत तो दिल में है, उनकी बातें तो कानों में हैं। तुम्हारे लिए और दुनिया के लिए वह नहीं हैं, मेरे लिए वह अब भी वैसे ही जीते-जागते हैं। मैं अब भी उन्हें वैसे ही बैठे देखती हूँ। पहले तो देह का अन्तर था। अब तो वह मुझसे और भी नगीच हो गये हैं। और ज्यों-ज्यों दिन बीतेंगे और भी नगीच होते जायँगे। भरे-पूरे घर में दाने की कौन कदर करता है। जब घर खाली हो जाता है, तब मालूम होता है कि दाना क्या है। पैसेवाले पैसे की कदर क्या जानें। पैसे की कदर तब होती है, जब हाथ खाली हो जाता है। तब आदमी एक-एक कौड़ी दाँत से पकड़ता है। तुम्हें भगवान् ने दिल ही नहीं दिया, तुम क्या जानो, सोहबत क्या है। घरवाली को मरे अभी छ: महीने भी नहीं हुए और तुम सांड़ बन बैठे। तुम मर गये होते, तो इसी तरह वह भी अब तक किसी के पास चली गयी होती? मैं जानती हूँ कि मैं मर जाती, तो मेरा सिरताज 'जन्म' भर मेरे नाम को रोया करता। ऐसे ही पुरुषों की स्त्रियाँ उन पर प्राण देती हैं। तुम-जैसे सोहदों के भाग में पत्तल चाटना लिखा है; चाटो; मगर खबरदार, आज से मेरे घर में पाँव न रखना, नहीं तो जान से हाथ धोओगे! बस, निकल जाओ।'

उसके मुख पर ऐसा तेज, स्वर में इतनी कटुता थी कि राजा को जबान खोलने का भी साहस न हुआ। चुपके से निकल भागा।

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6. सती-2

दो शताब्दियों से अधिक बीत गई हैं, पर चिंतादेवी का नाम चला जाता है। बुंदेलखड के एक बीहड़ स्थान में आज भी मंगलवार को सहस्त्रों स्त्री-पुरुष चिंतादेवी की पूजा करने आते हैं। उस दिन यह निर्जन स्थान सोहने गीतों से गूँज उठता है, देवी का मंदिर एक बहुत ऊँचे टीले पर बना हुआ है उसके कलश पर लहराती हुई लाल पताका बहुत दूर से दिखाई देती है। मंदिर इतना छोटा है कि उसमें मुश्किल से एक साथ दो आदमी समा सकते हैं। भीतर कोई प्रतिमा नहीं है, केवल एक छोटी सी वेदी बनी हुई है। नीचे से मंदिर तक पत्थर का जीना है। भीड़-भाड़ में कोई धक्का खाकर कोई नीचे न गिर पड़े, इसलिए जीने के दोनों तरफ दीवार बनी हुई है। यहीं चिंता देवी सती हुई थी। पर लोकरीति के अनुसार वह अपने मृत पति के साथ चिता पर नहीं बैठी थी। उनका पति हाथ जोड़े खड़ा था, पर वह उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखती थी। वह पति के शरीर के साथ नहीं, उसकी आत्मा के साथ सती हुई। उस चिता पर पति का शरीर न था उसकी मर्यादा भस्मीभूत हो रही थी।

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