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प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803
आईएसबीएन :9781613015407

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


यमुना-तट पर कालपी एक छोटा-सा नगर है। चिंता उसी नगर के एक वीर बुँदेले की कन्या थी। उसकी माता उसकी बाल्यावस्था में ही परलोक सिधार चुकी थी। उसके पालन-पोषण का भार पिता पर पड़ा। वह संग्राम का समय था, योद्वाओं को कमर खोलने की भी फुरसत न मिलती थी, वे घोड़े की पीठ पर भोजन करते और जीन ही पर झपकियाँ ले लेते थे। चिंता का बाल्यकाल पिता के साथ समर भूमि में कटा। बाप उसे किसी खोह या वृक्ष की आड़ में छिपाकर मैदान में चला जाता।

चिंता निःशंक भाव से बैठी हुई मिट्टी के किले बनाती और बिगाड़ती। उसके घरौंदे किले होते थे, उसकी गुड़ियाँ ओढ़नी न ओढ़ती थी। वह सिपाहियों के गड्डे बनाती और उन्हें रणक्षेत्र में खड़ा करती थी। कभी-कभी उसका पिता संध्या समय भी न लौटता, पर चिंता को भय छू तक न गया था। निर्जन स्थान में भूखी-प्यासी रात-रात भर बैठी रह जाती। उसने नेवले और सियार की कहानियाँ कभी न सुनी थी। वीरों के आत्मोत्सर्ग की कहानियाँ और वह भी योद्धाओं के मुँह से, सुन-सुनकर वह आदर्शवादिनी बन गयी थी।

एक बार तीन दिन तक चिंता को अपने पिता की खबर न मिली। वह एक पहाड़ की खोह में बैठी मन ही मन एक ऐसा किला बना रही थी जिसे शत्रु किसी भाँति जान न सके। दिन भर वह उसी किले का नक्शा सोचती और रात को उसी किले का स्वप्न देखती। तीसरे दिन संध्या-समय उसके पिता के कई साथियों ने आकर उसके सामने रोना शुरू किया। चिंता ने विस्मित होकर पूछा- दादा जी कहाँ हैं? तुम लोग क्यों रोते हो?

किसी ने इसका उत्तर न दिया वे जोर से धाड़े मार-मार कर रोने लगे। चिंता समझ गयी उसके पिता ने वीर गति पायी है। उस तेरह वर्ष की बालिका की आँखों से आँसू की एक बूँद भी न गिरी, मुख जरा भी मलिन न हुआ एक आह भी न निकली हँसकर बोली- अगर उन्होंने वीर गति पायी, तो तुम लोग रोते क्यों हो? योद्धाओं के लिए इससे बढ़कर उनकी वीरता का और क्या पुरस्कार मिल सकता है? यह रोने का नहीं आनंद मनाने का अवसर है।

एक सिपाही ने चिंतित स्वर में कहा- हमें तुम्हारी चिंता है। तुम अब कहाँ रहोगी?

चिंता ने गम्भीरता से कहा- इसकी तुम चिंता न करो! मैं अपने बाप की बेटी हूँ। जो कुछ उन्होंने किया है वही मैं भी करूँगी। अपनी मातृ-भूमि को शत्रुओं के छुड़ाने में उन्होंने प्राण दे दिए। मेरे सामने वही आदर्श है। जाकर अपने-अपने आदमियों को सँभालिए। मेरे लिए एक घोड़े और हथियारों का प्रबंध कर दीजिए। ईश्वर ने चाहा, तो आप लोग मुझे किसी से पीछे न पाएँगे। लेकिन यदि मुझे पीछे हटते देखना, तो तलवार के एक हाथ से इस जीवन का अन्त कर देना। यही मेरी आपसे विनय है। जाइए, अब न विलम्ब कीजिए।

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