कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
सहसा खबर आयी की शत्रुओं की एक सेना किले की ओर बढ़ी चली आती है। चिंता चौंक पड़ी; रत्नसिंह खड़ा हो गया, और खूँटी से लटकती हुई तलवार उतार ली।
चिंता ने उसकी ओर कातर-स्नेह की दृष्टि से देखकर कहा- कुछ आदमियों को उधर भेज दो, तुम्हारे जाने की क्या जरूरत है?
रत्नसिंह ने बंदूक कंधे पर रखते हुए कहा- मुझे भय है कि अबकी वे लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं।
चिंता- तो मैं भी चलूँगी।
‘नहीं मुझे आशा है, वे लोग ठहर न सकेंगे! मैं एक ही धावे में उनके कदम उखाड़ दूँगा। यह ईश्वर की इच्छा है कि हमारी प्रणय रात्रि विजय रात्रि हो।’
‘न जाने मन क्यों कातर हो रहा है। जाने देने को जी नहीं चाहता!’
रत्नसिंह ने इस सरल, अनुरक्त आग्रह से विह्वल होकर चिंता को गले लगा लिया, और बोले मैं सबेरे तक लौट आऊँगा प्रिये!
चिंता पति के गले में हाथ डालकर आँखों में आँसू भरे हुए बोली- मुझे भय है, तुम बहुत दिनों में लौटोगे। मेरा मन तुम्हारे साथ रहेगा। जाओ, पर रोज खबर भेजते रहना। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अवसर का विचार करके धावा करना। तुम्हारी आदत है कि देखते ही आकुल हो जाते हो, और जान पर खेलकर टूट पड़ते हो। तुमसे मेरा यही अनुरोध है कि अवसर देखकर काम करना। जाओ जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुँह दिखाओ।
चिंता का हृदय कातर हो गया था। वहाँ पहले केवल विजय लालसा का आधिपत्य था। अब भोग लालसा की प्रधानता थी। वही वीर बाला, जो सिंहनी की तरह गरजकर शत्रुओं के कलेजे कँपा देती थी, आज इतनी दुर्बल हो रही थी कि जब रत्नसिंह घोड़े पर सवार हुआ, तो आप उसकी कुशल कामना से मन ही मन देवी की मनौतियाँ कर रही थी। जब तक वृक्षों की ओट में छिप न गया, वह खड़ी उसे देखती रही, फिर वह किले के सबसे ऊँचे बुर्ज पर चढ़ गई, और घंटों उसी तरफ ताकती रही। वहाँ शून्य था, पहाड़ियों ने कभी का रत्नसिंह को अपनी ओट में छिपा लिया था, पर चिंता को ऐसा जान पड़ता था कि वह सामने चले जा रहे हैं। जब उषा की लोहित छवि वृक्षों की आड़ में झाँकने लगी, तो उसकी मोह-विस्मृति टूट गई। मालूम हुआ, चारो ओर शून्य है। वह रोती हुई बुर्ज से उतरी, और शय्या पर मुँह ढाँपकर रोने लगी।
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