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प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803
आईएसबीएन :9781613015407

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


सहसा घोड़े के टापों की आवाजें सुनाई देने लगीं। मालूम होता था, कोई सिपाही घोड़े को सरपट भगाता चला आ रहा है। एक क्षण में टापों की आवाज बन्द हो गई और एक सैनिक आँगन में दौड़ा  हुआ था पहुँचा। लोगों ने चकित होकर देखा-यह रत्नसिंह  था !

रत्नसिंह चिंता के पास हाँफता हुआ बोला- प्रिये, मैं तो अभी जीवित हूँ, यह तुमने क्या कर डाला! चिता में आग लग चुकी थी! चिंता की साड़ी से अग्नि की ज्वाला निकल रही थी। रत्नसिंह  उन्मत्त की भांति चिता में घुस गया, और चिंता का हाथ पकड़कर उठाने लगा। लोगो ने चारों ओर से लपक-लपककर चिता की लकड़ियाँ हटानी शुरू कीं। पर चिंता ने पति की ओर आँख उठाकर भी न देखा, केवल हाथों से उसे हट जाने का संकेत किया।

रत्नसिंह  सिर पीटकर  बोला- हाय प्रिये! तुम्हें क्या हो गया है? मेरी ओर देखती क्यों नहीं, मैं तो जीवित हूँ।

चिता से आवाज आयी- तुम्हारा नाम रत्नसिंह है, पर तुम मेरे रत्नसिंह नहीं हो।

‘तुम मेरे तरफ देखो तो, मैं ही तुम्हारा दास, उपवास, तुम्हारा पति हूँ।’

‘मेरे पति ने वीर-गति पायी।’

‘हाय कैसे समझाऊँ! अरे लोगों, किसी भाँति अग्नि को शांत करो। मैं रत्नसिंह ही हूँ प्रिये! क्या तुम मुझे पहचानती नहीं हो?’

अग्नि शिखा चिंता के मुख तक पहुँच गई। अग्नि में कमल खिल गया। चिंता स्पष्ट स्वर में बोली- खूब पहचानती हूँ। तुम मेरे रत्नसिंह नहीं, मेरा रत्नसिंह सच्चा शूर था, वह आत्म रक्षा के लिए, इस तुच्छ देह को बचाने के लिए, अपने क्षत्रिय-धर्म का परित्याग न कर सकता था। मैं जिस पुरुष के चरणों की दासी बनी थी। वह देवलोक में विराजमान है। रत्नसिंह को बदनाम मत करो। वह वीर राजपूत था, रणक्षेत्र से भागने वाला कायर नहीं।

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