कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
‘कोई नहीं! कोई नहीं!!’
चिंता सिर पकड़कर भूमि पर बैठ गई। सैनिक ने फिर कहा- मरहठे समीप आ पहुँचे।
‘समीप आ पहुँचे!!’
‘बहुत समीप!’
‘तो तुरंत चिता तैयार करो। समय नहीं है।’
‘अभी हम लोग तो सिर कटाने को हाजिर ही हैं।’
‘तुम्हारी जैसी इच्छा। मेरे कर्तव्य का यही अंत है।’
‘किला बंद करके हम महीनों लड़ सकते हैं।’
‘तो जाकर लड़ो। मेरी लड़ाई अब किसी से नहीं।’
एक ओर अँधकार प्रकाश को पैरों तले कुचलता चला आता था, दूसरी ओर विजयी मरहठे लहराते हुए खेतों को रौंदते चले आ रहे थे, और किले में चिता बन रही थी।
ज्यों ही दीपक जले, चिता में भी आग लगी। सती चिंता, सोलहों श्रृंगार किए अनुपम छवि दिखाती हुई, प्रसन्न-मुख अग्नि-मार्ग से पतिलोक की यात्रा करने जा रही थी।
चिंता के चारों ओर स्त्री और पुरुष जमा थे। शत्रुओं ने किले को घेर लिया है, इसकी किसी को फिक्र न थी। शोक और संताप से सबके चेहरे उदास और सिर झुके थे। अभी कल इसी आँगन में विवाह का मंडप सजाया गया था। जहाँ इस समय चिता सुलग रही है, वही कल हवनकुंड था। कल भी इसी भाँति अग्नि की लपटें उठ रही थीं, इसी भाँति लोग जमा थे। पर आज और कल के दृश्यों में कितना अंतर है! हाँ, स्थूल नेत्रों के लिए अंतर हो सकता है, वास्तव में यह उसी यज्ञ की पूर्णाहुति है, उसी प्रतिज्ञा का पालन है।
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