कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 43 प्रेमचन्द की कहानियाँ 43प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतालीसवाँ भाग
मैजिनी रोम से फिर इंगलिस्तान पहुंचा और यहां एक अरसे तक रहा। सन् 1870 में उसे खबर मिली कि सिसली की रिआया बगावत पर आमादा है और उन्हें मैदाने-जंग में लाने के लिए एक उभारनेवाले की जरूरत है। बस, वह फौरन सिसली पहुंचा मगर उसके जाने से पहले शाही फौज ने बागियों को दबा दिया था। मैजिनी जहाज से उतरते ही गिरफ्तार करके एक कैदखाने में डाल दिया गया। मगर चूंकि अब वह बहुत बुड्ढा हो गया था, शाही हुक्म ने इस डर से कि कहीं वह कैद की तकलीफों से मर जाय तो जनता को संदेह होगा कि बादशाह की प्रेरणा से वह कत्ल कर डाला गया, उसे रिहा कर दिया। निराश और टूटा हुआ दिल लिये मैजिनी फिर स्विट्जरलैंड की तरफ रवाना हुआ। उसकी जिन्दगी की तमाम उम्मीदें खाक में मिल गईं। इसमें शक नहीं कि इटली के एकताबद्ध हो जाने के दिन बहुत पास आ गये थे मगर उसकी हुकूमत की हालत उससे हरगिज बेहतर न थी जैसी आस्ट्रिया या नेपल्स के शासन-काल में। अंतर यह था कि पहले वह एक दूसरी कौम की ज्यादतियों से परेशान थे, अब अपनी कौम के हाथों। इन निरंतर असफलताओं ने दृढ़व्रती मैजिनी के दिल में यह ख्याल पैदा किया कि शायद जनता की राजनीतिक शिक्षा इस हद तक नहीं हुई है, कि वह अपने लिए एक प्रजातांत्रिक शासन-व्यवस्था की बुनियाद डाल सके और इसी नीयत से वह स्विट्जरलैंड जा रहा था कि वहां से एक जबर्दस्त कौमी अखबार निकाले क्योंकि इटली में उसे अपने विचारों को फैलाने की इजाजत न थी। वह रातभर नाम बदलकर रोम में ठहरा। फिर वहां से अपनी जन्मभूमि जिनेवा में आया और अपनी नेक मां की कब्र पर फूल चढ़ाये। इसके बाद स्विट्जरलैंड की तरफ चला और साल भर तक कुछ विश्वसनीय मित्रों की सहायता से अखबार निकालता रहा। मगर निरंतर चिंता और कष्टों ने उसे बिलकुल कमजोर कर दिया था। सन् 1870 में वह सेहत के ख्याल से इंगलिस्तान आ रहा था कि आल्प्स पर्वत की तलहटियों में निमोनिया की बीमारी ने उसके जीवन का अंत कर दिया और वह एक अरमानों से भरा दिल लिये स्वर्ग को सिधारा। इटली का नाम मरते दम तक उसकी जबान पर था। यहां भी उसके बहुत-से समर्थक और हमदर्द शरीक थे। उसका जनाजा बड़ी धूम से निकला। हजारों आदमी साथ थे और एक बड़ी सुहानी खुली हुई जगह पर पानी के एक साफ चश्मे के किनारे पर इस कौम के लिए मर मिटनेवाले को सुला दिया गया।
मैजिनी को कब्र में सोये हुए आज तीस दिन गुजर गये। शाम का वक्त था, सूरज की पीली किरणें इस ताजा कब्र पर हसरतभरी आंखों से ताक रही हैं। तभी एक अधेड़ खूबसूरत औरत सुहाग के जोड़े पहने, लड़खड़ाती हुई आयी। यह मैग्डलीन थी। उसका चेहरा शोक में डूबा हुआ था, बिलकुल मुर्झाया हुआ, कि जैसे अब इस शरीर में जान बाकी नहीं रही। वह इस कब्र के सिरहाने बैठ गयी और अपने सीने पर खुंसे हुए फूल उस पर चढ़ाये, फिर घुटनों के बल बैठकर सच्चे दिल से दुआ करती रही। जब खूब अंधेरा हो गया, बर्फ पड़ने लगी तो वह चुपके से उठी और खामोश सर झुकाये करीब के एक गांव में जाकर रात बसर की और भोर की वेला अपने मकान की तरफ रवाना हुई।
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