कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 43 प्रेमचन्द की कहानियाँ 43प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतालीसवाँ भाग
मैग्डलीन अब अपने घर की मालिक थी। उसकी मां बहुत जमाना हुआ मर चुकी थी। उसने मैजिनी के नाम से एक आश्रम बनवाया और खुद आश्रम की ईसाई लेडियों के लिबास में वहां रहने लगी। मैजिनी का नाम उसके लिए एक निहायत पुरदर्द और दिलकश गीत से कम न था। हमदर्दों और कद्रदानों के लिए उसका घर उनका अपना घर था। मैजिनी के खत उसकी इंजील और मैजिनी का नाम उसका ईश्वर था। आसपास के गरीब लड़कों और मुफलिस बीवियों के लिए यही बरकत से भरा हुआ नाम जीविका का साधन था। मैग्डलीन तीन बरस तक जिन्दा रही और जब मरी तो अपनी आखिरी वसीयत के मुताबिक उसी आश्रम में दफन की गयी। उसका प्रेम मामूली प्रेम न था, एक पवित्र और निष्कलंक भाव था और वह हमको उन प्रेम-रस में डूबी हुई गोपियों की याद दिलाता है जो श्रीकृष्ण के प्रेम में वृंदावन की कुंजों और गलियों में मंडलाया करती थीं, जो उससे मिले होने पर भी उससे अलग थीं और जिनके दिलों में प्रेम के सिवा और किसी चीज की जगह न थी। मैजिनी का आश्रम आज तक कायम है और गरीब और साधु-संत अभी तक मैजिनी का पवित्र नाम लेकर वहां हर तरह का सुख पाते हैं।
7. सिर्फ़ एक आवाज
सुबह का वक्त था। ठाकुर दर्शनसिंह के घर में एक हंगामा बरपा था। आज रात को चन्द्रग्रहण होने वाला था। ठाकुर साहब अपनी बूढ़ी ठकुराइन के साथ गंगाजी जाते थे इसलिए सारा घर उनकी पुरशोर तैयारी में लगा हुआ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुर्ता टाँक रही थी, दूसरी बहू उनकी पगड़ी लिए सोचती थी, कि कैसे इसकी मरम्मत करूं? दोनों लड़कियाँ नाश्ता तैयार करने में तल्लीन थीं। जो ज्यादा दिलचस्प काम था और बच्चों ने अपनी आदत के अनुसार एक कुहराम मचा रक्खा था क्योंकि हर एक आने-जाने के मौके पर उनका रोने का जोश उमंग पर होता था। जाने के वक्त साथ जाने के लिए रोते, आने के वक्त इसलिए रोते किशरीनी का बाँट-बखरा मनोनुकूल नहीं हुआ। बूढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसलाती थी और बीच-बीच में अपनी बहुओं को समझाती थी- देखो खबरदार! जब तक ग्रहण उग्रह न हो जाय, घर से बाहर न निकलना। हँसिया, छुरी, कुल्हाड़ी, इन्हें हाथ से मत छूना। समझाये देती हूँ, मानना चाहे न मानना। तुम्हें मेरी बात की परवाह है। मुंह में पानी की बूंदे न पड़ें। नारायण के घर विपत पड़ी है। जो साधु-भिखारी दरवाजे पर आ जाय उसे फेरना मत।
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