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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


अज्ञान की अवस्था में कितने ही अपराध क्षम्य हो जाते हैं। ज्ञानी के लिए क्षमा नहीं है, प्रायश्चित नहीं है, या तो बहुत ही कठिन। सुजान को भी अब भगतों की मर्यादा को निभाना पड़ा। अब तक उसका जीवन मजूर का जीवन था। उसका कोई आदर्श, कोई मर्यादा उसके सामने न थी। अब उसके जीवन में विचार का उदय हुआ, जहाँ का मार्ग काँटों से भरा हुआ है। स्वार्थ-सेवा ही पहले उसके जीवन का लक्ष्य थी, इसी काँटे से वह परिस्थितियों को तौलता था। वह अब उन्हें औचित्य के काँटों पर तौलने लगा। यों कहो कि जड़-जगत से निकलकर उसने चेतन-जगत में प्रवेश किया।

उसने कुछ लेन-देन करना शुरू किया था; पर अब उसे ब्याज लेते हुए आत्मग्लानि-सी हो रही थी। यहाँ तक कि गउओं को दुहते समय उसे बछड़ों का ध्यान रहता था-कहीं बछड़ा भूखा न रह जाए, नहीं उसका रोआँ दुखी होगा! वह गाँव का मुखिया था कितने ही मुकदमों में उसने झूठी शहादतें बनवायी थीं, कितनों से डाँड़ लेकर मामला रफा-दफा करा दिया था। अब इन व्यापारों से उसे घृणा होती थी। छूठ और प्रपंच से कोसों भागता था।

पहले उसकी यह चेष्ठा होती थी कि मजूरों से जितना काम लिया जा सके लो और मजूरी जितनी कम दी जा सके दो; पर अब उसे मजूरों के काम की कम, मजूरी की अधिक चिंता रहती थी–कहीं बेचारे मजूर का रोआँ न दुखी हो जाए। यह उसका सखुनत किया-सा हो गया–किसी का रोआँ न दुखी हो जाए। उसके दोनों जवान बेटे बात-बात में उस पर फब्तियाँ कसते, यहाँ तक कि बुलाकी भी अब उसे कोरा भगत समझने लगी, जिसे घर के भले-बुरे से कोई प्रयोजन न था। चेतन-जगत में आकर सुजान कोरे भगत रह गए।

सुजान के हाथों से धीरे-धीरे अधिकार छीने जाने लगे। किस खेत में क्या बोना है किसको क्या देना है, किससे क्या लेना है, किस भाव क्या चीज बिकी, ऐसी महत्वपूर्ण बातों में भी भगतजी की सलाह न ली जाती। भगत के पास कोई जाने ही न पाता। दोनों लड़के या स्वयं बुलाकी दूर ही से मामला कर लिया करती। गाँव भर में सुजान का मान-सम्मान बढ़ता था, अपने घर में घटता था। लड़के अब उसका सत्कार अब बहुत करते। उसे हाथ से चारपाई उठाते देख लपककर खुद उठा लाते, उसे चिलम न भरने देते, यहाँ तक कि उसकी धोती छाँटने के लिए भी आग्रह करते थे; मगर अधिकार उसके हाथ में न था। वह अब घर का स्वामी नहीं, मंदिर का देवता था।

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