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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


एक दिन बुलाकी ओखली में दाल छाँट रही थी। एक भिखमंगा द्वार पर आकर चिल्लाने लगा। बुलाकी ने सोचा, दाल छाँट लूँ, तो उसे कुछ दे दूँ। इतने में बड़ा लड़का आकर बोला- अम्माँ, एक महात्मा द्वार पर खड़े है गला फाड़ रहे हैं। कुछ दे दो, नहीं उनका रोआँ दुखी हो जाएगा।

बुलाकी ने उपेक्षा-भाव से कहा- भगत के पाँव में क्या मेंहदी लगी है, क्यों कुछ ले जाकर नहीं दे देते! क्या मेरे चार हाथ हैं? किस-किसका रोआँ सुखी करूँ, दिन भर तो ताँता लगा रहता है!

भोला- चौपट करने पर लगे हुए हैं और क्या? अभी महूँगू बेंग देने आया था। हिसाब से सात मन हुए। तौला तो पौने सात मन ही निकले। मैंने कहा- दस सेर और ला, तो आप बैठे-बैठे कहते हैं, अब इतनी दूर कहाँ लेने जाएगा? भर-पाई लिख दो, नहीं उसका रोआँ दुखी होगा। मैंने भरपाई नहीं लिखी। दस सेर बाकी लिख दी।

बुलाकी- बहुत अच्छा किया तुमने, बकने दिया करो, दस-पाँच दफे मुँह की खाएँगे, तो आप ही बोलना छोड़ देंगे।

भोला- दिन-भर एक-न-एक खुचड़ निकालते रहते हैं। सौ दफे कह दिया कि तुम घर-गृहस्थी के मामले में न बोला करो; पर इनसे बिना बोले रहा ही नहीं जाता।

बुलाकी- मैं जानती कि इनका यह हाल होगा, तो गुरु-मंत्र न लेने देती।

भोला- भगत क्या हुए कि दीन-दुनियाँ-दोनों से गए। सारा दिन पूजा पाठ में ही उड़ जाता है। अभी ऐसे बूढे़ नहीं हो गए कि कोई काम ही न कर सकें।

बुलाकी ने आपत्ति की- भोला, यह तो तुम्हारा कुन्याय है। फावड़ा-कुदाल अब उनसे नहीं हो सकता, लेकिन कुछ न कुछ करते ही रहते हैं।

बैलों को सानी पानी देते हैं, गाय दुहाते हैं, और भी जो कुछ हो सकता है करते हैं।

भिक्षुक अभी तक खड़ा चिल्ला रहा था। सुजान ने जब घर में से किसी को कुछ लाते न देखा, तो उठकर अंदर गया और कठोर स्वर में बोला- तुम लोगों को कुछ सुनाई न देता कि द्वार पर कौन घंटे भर से खड़ा भीख माँग रहा है? अपना काम तो दिन भर करना ही है, एक छन भगवान् का काम भी तो किया करो।

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