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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


वह कुछ रात रहे उठती। कुटी में झाड़ू देती। साधु के लिए गंगा से जल लाती। जंगलों से पुष्प चुनती। साधु नींद में होते तो वह उन्हें पंखा झलती। जंगली फल तोड़ लाती और केले के पत्तल बनाकर साधु के सम्मुख रखती। साधु नदी में स्नान करने जाया करते थे। तारा रास्ते से कंकर चुनती। उसने कुटी के चारों ओर पुष्प लगाए। गंगा से पानी लाकर सींचती, उन्हें हरा-भरा देखकर प्रसन्न होती। उसने मदार की रुई बटोरी, साधु के लिए नर्म गद्दे तैयार किए। अब और कोई कामना न थी! सेवा स्वयं अपना पुरस्कार और फल थी।

तारा को कई-कई दिन उपवास करना पड़ता। हाथों में गट्टे पड़ गए। पैर काँटों से चलनी हो गए। धूप से कोमल गात मुरझा गया। गुलाब-सा बदन सूख गया, पर उसके हृदय में अब स्वार्थ और गर्व का शासन न था। वहाँ अब प्रेम का राज था; वहां अब उस सेवा की लगन थी, जिससे कलुषता की जगह आनन्द का स्रोत बहता और काँटे पुष्प बन जाते हैं जहाँ अश्रु-धारा की जगह नेत्रों से अमृतजल की वर्षा होती और दुःख-विलाप की जगह आनंद के राग निकलते हैं, जहां के पत्थर रुई से ज्यादा कोमल हैं और शीतल वायु से भी मनोहर। तारा भूल गई कि मैं सौंदर्य में अद्वितीय हूँ। धन विलासिनी तारा अब केवल प्रेम की दासी थी।

साधु को वन के खगों और मृगों से प्रेम था। वे कुटी के पास एकत्रित हो जाते! तारा उन्हें पानी पिलाती, दाने चुगाती, गोद में लेकर उनका दुलार करती। विषधर साँप और भयानक जंतु उसके प्रेम के प्रभाव से उसके सेवक हो गए।

बहुधा रोगी मनुष्य साधु के आशीर्वाद लेने आते थे। तारा रोगियों की सेवा-सुश्रूषा करती, जंगल से जड़ी-बूटियाँ ढूंढ़ लाती, उनके लिए औषधि बनाती, उनके घाव धोती, घावों पर मरहम रखती, रात-रात भर बैठी उन्हें पंखा झलती। साधु के आशीर्वाद को उसकी सेवा प्रभावयुक्त बना देती थी।

इस प्रकार कितने ही वर्ष बीत गए। गर्मी के दिन थे, पृथ्वी तवे की तरह जल रही थी। हरे-भरे वृक्ष सूखे जाते थे। गंगा गर्मी से सिमट गई थी। तारा को पानी के लिए बहुत दूर रेत में चलना पड़ता। उसका। कोमल अंग चूर-चूर हो जाता। जलती हुई रेत में तलवे भुन जाते। इसी दशा में एक दिन वह हताश होकर एक वृक्ष के नीचे क्षण-भर दम लेने के लिए बैठ गई। उसके नेत्र बंद हो गए। उसने देखा, देवी मेरे सम्मुख खड़ी, कृपादृष्टि से मुझे देख रही है। तारा ने दौड़ कर उनके पदों को चूमा।

देवी ने पूछा- तारा, तेरी अभिलाषा पूरी हुई?

तारा- हाँ माता, मेरी अभिलाषा पूरी हुई।

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