कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
साहब की कैद से तो मन्नू जल्द ही छूट गया था, लेकिन इस कैद में तीन महीने बीत गये। शरीर घुल गया, नित्य चिन्ता घेरे रहती थी, पर भागने का कोई ठीक-ठिकाना न था। जी चाहे या न चाहे, उसे काम अवश्य करना पड़ता था। स्वामी को पैसों से काम था, वह जिये चाहे मरे। संयोगवश एक दिन सर्कस के पंडाल में आग लग गई, सर्कस के नौकर-चाकर सब जुआरी थे। दिन-भर जुआ खेलते, शराब पीते और लड़ाई-झगड़ा करते थे। इन्हीं झंझटों में एकएक गैस की नली फट गई। हाहाकार मच गया। दर्शक वृन्द जान लेकर भागे। कंपनी के कर्मचारी अपनी चीजें निकालने लगे। पशुओं की किसी का खबर न रही। सर्कस में बड़े-बड़े भयंकर जीव-जन्तु तमाशा करते थे। दो शेर, कई चीते, एक हाथी, एक रीछ था। कुत्तों घोड़ों तथा बन्दरों की संख्या तो इससे कहीं अधिक थी। कंपनी धन कमाने के लिए अपने नौकरों की जान को कोई चीज नहीं समझती थी। ये सब के सब जीव इस समय तमाशे के लिए खोले गये थे। आग लगते ही वे चिल्ला-चिल्लाकर भागे। मन्नू भी भागा खड़ा हुआ। पीछे फिरकर भी न देखा कि पंडाल जला या बचा।
मन्नू कूदता-फांदता सीधे घर पहुंचा जहां, जीवनदास रहता था, लेकिन द्वार बन्द था। खरपैल पर चढ़कर वह घर में घुस गया, मगर किसी आदमी का चिन्ह नहीं मिला। वह स्थान, जहां वह सोता था, और जिसे बुधिया गोबर से लीपकर साफ रक्खा करती थी, अब घास-पात से ढका हुआ था, वह लकड़ी जिस पर चढ़कर कूदा करता था, दीमकों ने खा ली थी। मुहल्लेवाले उसे देखते ही पहचान गए। शोर मच गया- मन्नू आया, मन्नू आया। मन्नू उस दिन से रोज संध्या के समय उसी घर में आ जाता, और अपने पुराने स्थान पर लेट रहता। वह दिन-भर मुहल्ले में घूमा करता था, कोई कुछ दे देता, तो खा लेता था, मगर किसी की कोई चीज नहीं छूता था। उसे अब भी आशा थी कि मेरा स्वामी यहां मुझसे अवश्य मिलेगा। रातों को उसके कराहने की करुण ध्वनि सुनाई देती थी। उसकी दीनता पर देखने वालों की आंखों से आंसू निकल पड़े थे। इस प्रकार कई महीने बीत गये। एक दिन मन्नू गली में बैठा हुआ था, इतने में लड़कों का शोर सुनाई दिया। उसने देखा, एक बुढ़िया नंगे बदन, एक चीथड़ा कमर में लपेटे सिर के बाल छिटकाए, भूतनियों की तरह चली आ रही है, और कई लड़के उसक पीछे पत्थर फेंकते पगली नानी! पगली नानी! की हांक लगाते, तालियां बजाते चले जा रहे हैं। वह रह-रहकर रुक जाती है और लड़कों से कहती है- ‘मैं पगली नानी नहीं हूं, मुझे पगली क्यों कहते हो? आखिर बुढ़िया जमीन पर बैठ गई, और बोली- ‘बताओ, मुझे पगली क्यों कहते हो?’ उसे लड़को पर लेशमात्र भी क्रोध न आता था। वह न रोती थी, न हंसती। पत्थर लग भी जाता चुप हो जाती थी।
एक लड़के ने कहा- तू कपड़े क्यों नहीं पहनती? तू पागल नहीं तो और क्या है?
बुढ़िया- कपड़े तो जाड़े में सर्दी से बचने के लिए पहने जाते है। आजकल तो गर्मी है।
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