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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


लड़का- तुझे क्रोध क्यों नहीं आता?

बुढ़िया- क्या जाने बेटा। मुझे तो क्रोध नहीं आता। क्या किसी को क्रोध भी आता है? मैं तो भूल गई। कई लड़कों ने इस पर ‘पगली, पगली’ का शोर मचाया और बुढ़िया उसी तरह शांत भाव से आगे चली। जब वह निकट आई तो मन्नू उसे पहचान गया। यह तो मेरी बुधिया है। वह दौड़कर उसके पैरों से लिपट गया। बुढ़िया ने चौंककर मन्नू को देखा, पहचान गई। उसने उसे छाती से लगा।

मन्नू को गोद में लेते ही बुधिया का अनुभव हुआ कि मैं नग्न हूं। मारे शर्म के वह खड़ी न रह सकी। बैठकर एक लड़के से बोली- बेटा, मुझे कुछ पहनने को दोगे?

लड़का- तुझे तो लाज ही नहीं आती न?

बुढ़िया- नहीं बेटा, अब तो आ रही है। मुझे न जाने क्या हो गया था। लड़कों ने फिर ‘पगली, पगली’ का शोर मचाया। तो उसने पत्थर फेंककर लड़कों को मारना शुरू किया। उनके पीछे दौड़ी।

एक लड़के ने पूछा- अभी तो तुझे क्रोध नहीं आता था। अब क्यों आ रहा है?

बुढ़िया- क्या जाने क्यों, अब क्रोध आ रहा है। फिर किसी ने पगली कहा तो बन्दर से कटवा दूंगी। एक लड़का दौड़कर एक फटा हुआ कपड़ा ले आया। बुधिया ने वह कपड़ा पहन लिया। बाल समेट लिये। उसके मुख पर जो एक अमानुष आभा थी, उसकी जगह चिन्ता का पीलापन दिखाई देने लगा। वह रो-रोकर मन्नू से कहने लगी- बेटा, तुम कहां चले गए थे। इतने दिन हो गए हमारी सुध न ली। तुम्हारा मदारी तुम्हारे ही वियोग में परलोक सिधारा, मैं भिक्षा मांगकर अपना पेट पालने लगी, घर-द्वार तहस-नहस हो गया। तुम थे तो खाने की, पहनने की, गहने की, घर की इच्छा थी, तुम्हारे जाते सब इच्छाएं लुप्त हो गईं। अकेली भूख तो सताती थी, पर संसार में और किसी की चिन्ता न थी। तुम्हारा मदारी मरा, पर आंखें में आंसू न आए। वह खाट पर पड़ा कराहता था और मेरा कलेजा ऐसा पत्थर का हो गया था कि उसकी दवा-दारू की कौन कहे, उसके पास खड़ी तक न होती थी। सोचती थी- यह मेरा कौन है। अब आज वे सब बातें और अपनी वह दशा याद आती है, तो यही कहना पड़ता है कि मैं सचमुच पगली हो गई थी, और लड़कों का मुझे पगली नानी कहकर चिढ़ाना ठीक ही था।

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