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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


सुजान को सबसे अधिक क्रोध बुलाकी पर ही था। यह भी लड़कों के साथ है! यह बैठी देखती रही और भोला ने मेरे हाथ से अनाज छीन लिया। इसके मुँह से इतना भी न निकला कि ले जाने दो। लड़कों को न मालूम हो कि मैंने कितने श्रम से यह गृहस्थी जोड़ी है; पर यह जानती है। दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। भादों की अंधेरी रातों में मड़ैया लगाए जुआर की रखवाली करता था, जेठ-बैसाख की दोपहर में भी दम न लेता था और अब मेरा घर पर इतना भी अधिकार नहीं है कि भीख तक दे सकूँ। माना कि भीख इतनी नहीं दी जाती; लेकिन इनको तो चुप रहना चाहिए था; चाहे मैं घर में आग ही क्यों लगा देता। कानून से भी तो मेरा कुछ होता है। मैं अपना हिस्सा नहीं खाता, दूसरों को खिला देता हूँ; इसमें किसी के बाप का क्या साझा! अब इस वक्त  मनाने आयी है! इसे मैंने फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ, नहीं तो गाँव में ऐसी कौन औरत है! जिसने खसम की लातें न खाई हों, कभी कड़ी निगाह से देखा तक नहीं। रुपये-पैसे लेना-देना सब इसी के हाथ में दे रखा था। अब रुपये जमा कर लिए हैं, तो मुझी से घमंड करती है! अब इसे बेटे प्यारे हैं मैं तो निखट्टू लुटाऊ, घर-फूँकू घोंघा हूँ। मेरी इसे क्या परवा? तब लड़के न थे, जब बीमार पड़ी थी और गोद में उठाकर बैद के घर ले गया था, आज इसके बेटे है और उनकी माँ है। मैं तो बाहर का आदमी हूँ, मुझसे घर से मतलब ही क्या! बोला- मैं अब खा-पीकर क्या करूँगा, हल जोतने से रहा, फावड़ा चलाने से रहा। मुझे खिलाकर दाने को क्यों खराब करोगी? रख दो, बेटे दूसरी बार खाएँगे।

बुलाकी- तुम तो जरा-जरा-सी बात पर तिनक जाते हो। सच कहा है, बुढ़ापे में आदमी की बुद्धि मारी जाती है। भोला ने इतना ही तो कहा था कि इतनी भीख मत ले जाओ, या और कुछ?

सुजान- हाँ, बेचारा इतना ही कहकर रह गया। तुम्हें तो तब मजा आता जब वह ऊपर से दो-चार डंडे लगा देता। क्यों? अगर यही अभिलाषा है तो पूरी कर लो। भोला खा चुका होगा बुला लाओ। नहीं, भोला को क्यों बुलाती हो तुम्हीं न जमा दो-दो चार हाथ। इतनी कसर है, वह भी पूरी हो जाए।

बुलाकी- हाँ, और क्या, यही तो नारी का धरम है! अपना भाग सराहो कि मुझ-जैसी सीधी औरत पा ली। जिस पर बल चाहते हो, बिठाते हो। ऐसी मुँह-जोर होती तो तुम्हारे घर में एक दिन निबाह न होता!

सुजान- हाँ भाई वह तो मैं भी कह रहा हूँ कि तुम देवी थीं और हो। मैं तब भी राक्षस था और अब तो दैत्य हो गया हूँ। बेटे कमाऊ हैं, उनकी-सी न कहोगी तो क्या मेरी-सी कहोगी, मुझसे अब क्या लेना-देना है?

बुलाकी- तुम झगड़ा करने पर तुले बैठे हो और मैं झगड़ा बचाती हूँ कि चार आदमी हँसेंगे। चलकर खाना खा लो सीधे से, नहीं तो मैं भी जाकर सो रहूँगी।

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