कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
बुलाकी- तुम तो भगवान का काम करने को बैठे ही हो। क्या घर-भर भगवान ही का काम करेगा?
सुजाक- कहाँ आटा रखा है, लाओ मैं ही निकालकर दे आऊँ। तुम रानी बनकर बैठो।
बुलाकी- आटा मैंने मर-मरकर पीसा है, अनाज दे दो। ऐसे मुड़िचरों के लिए पहर-रात से उठकर चक्की नहीं चलाती हूँ।
सुजान भंड़ार-घर में गये और एक छोटी-सी छबड़ी को जौ से भरे हुए निकले। जौ सेर-भर से कम न था। सुजान ने जान-बूझकर, केवल बुलाकी और भोला को चिढा़ने के लिए भिक्षा-परम्परा का उल्लंघन किया था। तिस पर भी यह दिखाने के लिए कि छबड़ी में बहुत ज्यादा जौ नहीं है वह उसे चुटकी से पकड़े हुए थे। चुटकी इतना बोझ न सँभाल सकती थी। हाथ काँप रहा था। एक क्षण का विलम्ब होने से छबकी के हाथ से छूटकर गिर पड़ने की सम्भावना थी, इसलिए वह जल्दी से बाहर निकल जाना चाहते थे। सहसा भोला ने छबड़ी उनके हाथ से छीन ली और त्योरियाँ बदलकर बोला- सेंत का माल नहीं है, जो लुटाने चले हो? छाती फाड़-फाड़कर काम करते हैं, तब दाना घर में आता है।
सुजान ने खिसियाकर कहा- मैं भी तो बैठा नहीं रहता।
भोला- भीख भीख की तरह दी जाती है, लुटायी नहीं जाती। हम तो एक बेला खाकर दिन काटते हैं कि पति-पानी बना रहे और तुम्हें लुटाने की सूझती है! तुम्हें क्या मालूम कि घर क्या हो रहा है?
सुजान- बाबा इस समय जाओ, किसी का हाथ खाली नहीं है। और पेड़ के नीचे बैठकर विचारों में मग्न हो गया। अपने ही घर में उसका यह अनादर अभी व अपाहिज नहीं है, हाथ-पाँव थके नहीं है घर का कुछ-न-कुछ करता ही रहता है। उस पर यह अनादर! उसी ने यह घर बनाया, यह सारी विभूति उसी के श्रम का फल है; पर अब इस घर पर उसका कोई अधिकार नहीं रहा। अब वह द्वार का कुत्ता है, पड़ा रहे और घर वाले जो रूखा-सूखा दे, वह खाकर पेट भर लिया करे! ऐसे जीवन को धिक्कार है। सुजान ऐसे घर में नहीं रह सकता।
संन्ध्या हो गई थी। भोला का छोटा भाई शंकर नारियल भरकर लाया। सुजान ने नारियल दीवार से टिकाकर रख दिया। धरे-धरे तम्बाकू जल गई। जरा देर में भोला ने द्वार पर चारपाई डाल दी। सुजान पेड़ के नीचे से न उठा।
कुछ देर और गुजरी। भोजन तैयार हुआ! भोला! भोला बुलाने आया! सुजान ने कहा–भूख नहीं है। बहुत मनावन करने पर भी न उठा। तब बुलाकी ने आकर कहा- खाना खाने क्यों नहीं चलते? जी तो अच्छा है?
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