कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
‘केशव को देखा?’
‘हाँ देखा।‘
‘धीरे से क्यों बोली? मैंने कुछ झूठ कहा था?
सुभद्रा ने सहृदयता से मुस्कराकर कहा- मैंने तुम्हारी आँखों से नहीं, अपनी आँखों से देखा। मुझे तो वह तुम्हारे योग्य नहीं जंचे। तुम्हें ठग लिया।
युवती खिलखिलाकर हँसी और बोली- वह! मैं समझती हूँ, मैंने उन्हें ठगा है।
एक बार वस्त्राभूषणों से सजकर अपनी छवि आईने में देखो तो मालूम हो जायेगा।
‘तब क्या मैं कुछ और हो जाऊँगी।‘
‘अपने कमरे से फर्श, तसवीरें, हाँड़ियाँ, गमले आदि निकाल कर देख लो, कमरे की शोभा वही रहती है!’
युवती ने सिर हिला कर कहा- ठीक कहती हो। लेकिन आभूषण कहाँ से लाऊँ। न-जाने अभी कितने दिनों में बनने की नौबत आये।
‘मैं तुम्हें अपने गहने पहना दूँगी।‘
‘तुम्हारे पास गहने हैं?’
‘बहुत। देखो, मैं अभी लाकर तुम्हें पहनाती हूँ।‘
युवती ने मुँह से तो बहुत ‘नहीं-नहीं’ किया, पर मन में प्रसन्न हो रही थी। सुभद्रा ने अपने सारे गहने पहना दिये। अपने पास एक छल्ला भी न रखा। युवती को यह नया अनुभव था। उसे इस रूप में निकलते शर्म तो आती थी; पर उसका रूप चमक उठा था। इसमें संदेह न था। उसने आईने में अपनी सूरत देखी तो उसकी सूरत जगमगा उठी, मानो किसी वियोगिनी को अपने प्रियतम का संवाद मिला हो। मन में गुदगुदी होने लगी। वह इतनी रूपवती है, उसे उसकी कल्पना भी न थी।
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