कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
कहीं केशव इस रूप में उसे देख लेते; वह आकांक्षा उसके मन में उदय हुई, पर कहे कैसे। कुछ देर में बाद लज्जा से सिर झुका कर बोली- केशव मुझे इस रूप में देख कर बहुत हँसेंगे।
सुभद्रा- हँसेगें नहीं, बलैया लेंगे, आँखें खुल जायेंगी। तुम आज इसी रूप में उसके पास जाना।
युवती ने चकित होकर कहा- सच! आप इसकी अनुमति देती हैं!
सुभद्रा ने कहा- बड़े हर्ष से।
‘तुम्हें संदेह न होगा?’
‘बिल्कुल नहीं।‘
‘और जो मैं दो-चार दिन पहने रहूँ?’
‘तुम दो-चार महीने पहने रहो। आखिर, पड़े ही तो हैं!’
‘तुम भी मेरे साथ चलो।‘
‘नहीं, मुझे अवकाश नहीं है।‘
‘अच्छा, लो मेरे घर का पता नोट कर लो।‘
‘हाँ, लिख दो, शायद कभी आऊँ।‘
एक क्षण में युवती वहाँ से चली गयी। सुभद्रा अपनी खिड़की पर उसे इस भाँति प्रसन्न-मुख खड़ी देख रही थी, मानो उसकी छोटी बहन हो, ईर्ष्या या द्वेष का लेश भी उसके मन में न था।
मुश्किल से, एक घंटा गुजरा होगा कि युवती लौट कर बोली- सुभद्रा क्षमा करना, मैं तुम्हारा समय बहुत खराब कर रही हूँ। केशव बाहर खड़े हैं। बुला लूँ?
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