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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


पण्डित देवदत्त की प्रकृति में भी अब नया रंग नजर आने लगा। जब तक गोदावरी अपनी कार्यपरायणता से घर का सारा बोझ सँभाले थी, तब तक उनको कभी किसी चीज की कमी नहीं खली। यहाँ तक कि शाक-भाजी के लिए भी उन्हें बाजार नहीं जाना पड़ा, पर अब गोदावरी उन्हें दिन में कई बार बाजार दौड़ते देखती। गृहस्थी का ठीक प्रबन्ध न रहने से बहुधा जरूरी चीजों के लिए उन्हें बाजार ऐन वक्त पर जाना पड़ता। गोदावरी यह कौतुक देखती और सुना-सुनाकर कहती– यही महाराज हैं कि एक तिनका उठाने के लिए भी न उठते थे। अब देखती हूँ, दिन में दस दफे बाजार में खड़े रहते हैं। अब मैं इन्हें कभी यह कहते नहीं सुनती कि मेरे लिखने-पढ़ने में हर्ज होगा।

गोदावरी को इस बात का एक बार परिचय मिल चुका था कि पण्डितजी बाजार-हाट के काम में कुशल नहीं हैं। इसलिए जब उसे कपड़े की जरूरत होती, तब वह अपने पड़ोस के एक बूढ़े लाला साहब से मँगवाया करती थी। पण्डितजी को यह बात भूल-सी गई थी कि गोदावरी को साड़ियों की जरूरत पड़ती है। उनके सिर से तो जितना बोझ कोई हटा दे, उतना ही अच्छा था। खुद वे भी वही कपड़े पहनते थे, जो गोदावरी उन्हें मँगाकर देती थी। पण्डितजी को नए फैशन और नमूने से कोई प्रयोजन न था। पर अब कपड़ों के लिए भी उन्हीं को बाजार जाना पड़ता है। एक बार गोमती के पास साड़ियाँ न थीं। पण्डितजी बाजार गये, तो एक बहुत अच्छा-सा जोड़ा उसके लिए ले आए। बजाज ने मनमाने दाम लिये। उधार सौदा लाने में पण्डितजी जरा भी आगा-पीछा न करते थे। गोमती ने वह जोड़ा गोदावरी को दिखाया। गोदावरी ने देखा और मुँह फेरकर वह रुखाई से बोली– भला, तुमने उन्हें कपड़े लाने तो सिखा दिए। मुझे तो सोलह वर्ष बीत गए, उनके हाथ का लाया हुआ एक कपड़ा स्वप्न में भी पहनना नसीब न हुआ।

ऐसी घटनाएँ गोदावरी की ईर्ष्याग्नि को और भी प्रज्जवलित कर देती थीं! जब तक उसे विश्वास था कि पण्डितजी स्वभाव से ही रुखे हैं, तब तक उसे संतोष था। परन्तु अब उनकी ये नई-नई तरंगें देखकर उसे मालूम हुआ कि जिस प्रीति को मैं सैकड़ों यत्न करके भी न पा सकी, उसे इस रमणी ने केवल यौवन से जीत लिया। उसे अब निश्चय हुआ कि मैं जिसे सच्चा समझ रही थी, वह वास्तव में कपटपूर्ण था। वह निरा स्वार्थ था।

दैवयोग से इन्हीं दिनों गोमती बीमार पड़ी। उसे उठने-बैठने की भी शक्ति न रही। गोदावरी रसोई बनाने लगी, पर उसे इसका निश्चय नहीं था कि गोमती वास्तव में बीमार है। उसे यही ख्याल था कि मुझसे खाना पकवाने के लिए ही दोनों प्राणियों ने यह स्वाँग रचा है। पड़ोस की स्त्रियों में वह कहती की लौंडी बनने में इतनी ही कसर थी, वह भी पूरी हो गई।

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