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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


मुँह-अँधेरे बुलाकी उठी, तो कटिया का ढेर देखकर दंग रह गई। बोली- क्या भोला आज रात भर कटिया ही काटता रह गया? कितना कहा कि बेटा जी से जहान है पर मानता ही नहीं। रात को सोया ही नहीं।

सुजान भगत ने ताने से कहा- वह सोता ही कब है? जब देखता हूँ, काम ही करता है। ऐसा कमाऊ संसार में और कौन होगा?

इतने में भोला आँखें मलता हुआ बोला- क्या शंकर आज बड़ी रात को ही उठा था, अम्माँ?

बुलाकी- वह तो पड़ा सो रहा है। मैंने सोचा तुमने काटी होगी।

मैं तो सबेरे उठ ही नहीं पाता दिन भर चाहे जितना काम कर लूँ, पर रात को मुझसे नहीं उठा जाता।

बुलाकी- तो क्या तुम्हारे दादा ने काटी है?

भोला- हाँ मालूम हो होता है। रात-भर सोए नहीं। मुझसे कल बड़ी भूल हुई। अरे! वह तो हल लेकर जा रहे हैं! जान देने पर उतारू हो गए हैं क्या?

बुलाकी- क्रोधी तो सदा के हैं। अब किसी की सुनेंगे थोड़े ही।

भोला- शंकर को जगा दो, मैं भी जल्दी से मुँह-हाथ धोकर हल ले आऊँ।

जब और किसानों के साथ हल लेकर खेत पर पहुँचा, तो सुजान आधा खेत जोत चुके थे। भोला ने चुपके से काम करना शुरू किया। सुजान से कुछ बोलने की हिम्मत न पड़ी।

दोपहर हुआ। अभी किसानों ने हल छोड़ दिए। पर सुजान भगत अपने काम में मग्न हैं। भोला थक गया है। उसकी बार-बार इच्छा होती है कि बैलों को खोल दे मगर डर के मारे कुछ कह नहीं सकता, उसको आश्चर्य हो रहा है, कि दादा कैसे इतनी मेहनत कर रहे हैं।

आखिर डरते-डरते बोला- दादा, अब दोपहर हो गई। हल खोल दे न?

सुजान- हाँ खोल दो। तुम बैलों को लेकर चलो मैं डांड़ फेंककर आता हूँ।

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