कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
|
9 पाठकों को प्रिय 242 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
भोला- मैं संझा को डाँड़ फेंक दूँगा।
सुजान- तुम क्या फेंक दोगे? देखते नहीं खेत कटोरे की तरह गहरा हो गया है। तभी तो बीच में पानी जम जाता है। इसी गोइँड़ के खेत में बीस मन का बीघा होता था। तुम लोगों ने इसका सत्यानाश कर दिया।
बैल खोल दिए गए। भोला बैलों को लेकर घर चला; पर सुजान डांड़ फेकते रहे। आध घंटे के बाद डांड़ फेंककर वह घर आये, मगर थकान का नाम न था। नहा-खाकर आराम करने के बदले उन्होंने बैंलों को सुहलाना शुरू किया। उनकी पीठ पर हाथ फेरा, उनके पैर मले, पूँछ सुहलायी। बैलों की पूँछें खड़ी थीं। सुजान की गोद में सिर रखे, उन्हें अकथनीय सुख मिल रहा था। बहुत दिनों के बाद आज उन्हें आनंद प्राप्त हुआ था। उनकी आँखों में कृतज्ञता भरी हुई थी। मानो वे कह रहे थे, हम तुम्हारे साथ दिन-रात काम करने को तैयार हैं।
अन्य कृषकों की भाँति भोला अभी कमर सीधी कर रहा था कि सुजान ने फिर हल उठाया और खेत की ओर चले। दोनों बैल उमंग से भरे दौड़े चले जाते थे, मानो उन्हें स्वयं खेत में पहुँचने की जल्दी थी।
भोला ने मड़ैया में लेटे-लेटे पिता को हल लिये जाते देखा; पर उठ न सका। उसकी हिम्मत छूट गई। उसने कभी इतना परिश्रम न किया था। उसे बनी-बनायी गिरस्थी मिल गई थी। उसे ज्यों-त्यों चला रहा था। इन दामों वह घर का स्वामी बनने का इच्छुक न था। आदमी को बीस धंधे होते हैं। हँसने-बोलने के लिए, गाने-बजाने के लिए उसे कुछ समय चाहिए। पड़ोस के गाँव में दंगल हो रहा है। जवान आदमी कैसे अपने आप को वहाँ जाने से रोकेगा? किसी गाँव में बरात आयी है, नाच-गाना हो रहा है। जवान आदमी क्यों उसके आनंद से वंचित रह सकता है? वृद्धजनों के लिए ये बाधाएँ नहीं उन्हें न नाच-गाने से मतलब, न खेल-तमाशे से गरज, केवल अपने काम से काम है।
बुलाकी ने कहा- भोला तुम्हारे दादा हल लेकर गये।
भोला- जाने दो अम्माँ, मुझसे तो यह नहीं हो सकता।
सुजान भगत के इस नवीन उत्साह पर गाँव में टीकाएँ हुई। निकल गई सारी भगती। बना हुआ था। माया में फँसा हुआ है। आदमी काहे को, भूत है!
मगर भगतजी के द्वार पर अब फिर साधु-संत आसन जमाए देखे जाते हैं। उनका आदर-सम्मान होता है, अब की उसकी खेती ने सोना उगल दिया है। बखारी में अनाज रखने की जगह नहीं मिलती। जिस खेत में पाँच मन मुश्किल से होता था। उसी खेत में अब दस मन की उपज हुई है।
|