कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
चैत का महीना था। खलियानों में सतयुग का राज था। जगह-जगह अनाज के ढेर लगे हुए थे। यही समय है जब कृषकों को भी थोड़ी देर के लिए अपना जीवन सफल मालूम होता है, जब गर्व से उनका हृदय उछलने लगता है। सुजान भगत टोकरों में अनाज भर-भर देते थे और दोनों लड़के टोकरे लेकर घर में अनाज रख आते थे। कितने ही भाट और भिछुक भगत जी को घेरे हुए थे। उनमें वह भिक्षुक भी था, जो आज से आठ महीने पहले भगत के द्वार से निराश होकर लौट गया था।
सहसा भगत ने उस भिक्षुक से पूछा- क्यों बाबा, आज कहाँ-कहाँ चक्कर लगा आये?
भिक्षुक- अभी तो कहीं नहीं गया भगतजी, पहले तुम्हारे ही पास आया हूँ।
भगत- अच्छा तुम्हारे सामने यह ढेर है, इसमें से जितना अपने हाथ से उठाकर ले जा सकते हो ले जाओ।
भिक्षुक ने क्षुब्ध नेत्रों से ढेर को देखकर कहा- जितना अपने हाथ से उठाकर दे दोगे, उतना ही लूँगा।
भगत- नहीं, तुमसे जितना उठ सके, उठा लो।
भिक्षुक के पास एक चादर थी। उसने कोई दस सेर अनाज उसमें भरा और उठाने लगा। संकोच के मारे और अधिक भरने का उसे साहस न हुआ।
भगत उसके मन का भाव समझकर आश्वासन देते हुए बोले- बस! इतना तो एक बच्चा उठा ले जाएगा।
भिक्षुक ने भोला की ओर संदिग्ध नेत्रों से देखकर कहा- मेरे लिए इतना बहुत है।
भगत- नहीं, तुम सकुचाते हो। अभी और भरो।
भिक्षुक ने एक पंसेरी अनाज और भरा और फिर भोला की ओर संशय दृष्टि से देखने लगा।
भगत- उसकी ओर क्या देखते हो बाबाजी, मैं जो कहता हूँ, वह करो। तुमसे जितना उठाया जा सके, उठा लो।
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