कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
औरत- मैं तुम्हें और तुम्हारे धर्म को घृणित समझती हूँ, तुम कुत्ते हो। इसके सिवा तुम्हारे लिए कोई दूसरा नाम नहीं। ख़ैरियत इसी में है कि मुझे जाने दो, नहीं तो मैं अभी शोर मचा दूंगी और तुम्हारा सारा मौलवीपन निकल जाएगा।
काज़ी- अगर तुमने जबान खोली, तो तुम्हे जान से हाथ धोना पड़ेगा। बस, इतना समझ लो।
औरत- आबरू के सामने जान की कोई हक़ीकत नहीं। तुम मेरी जान ले सकते हो, मगर आबरू नहीं ले सकते।
काज़ी- क्यों नाहक जिद करती हो?
औरत ने दरवाज़े के पास जाकर कहा- कहती हूँ, दरवाजा खोल दो।
जामिद अब तक चुपचाप खड़ा था। ज्यों ही स्त्री दरवाज़े की तरफ चली और काज़ी साहब ने उसका हाथ पकड़कर खींचा, जामिद ने तुरंत दरवाजा खोल दिया और काज़ी साहब से बोला- इन्हें छोड़ दीजिए।
काज़ी- क्या बकता है?
जामिद- कुछ नहीं। ख़ैरियत इसी में है इन्हें छोड़ दीजिए।
लेकिन जब काज़ी साहब ने उस महिला का हाथ न छोड़ा और तांगे वाला भी उसे पकड़ने के लिए बढ़ा, तो जामिद ने एक धक्का देकर काज़ी साहब को धकेल दिया और उस स्त्री का हाथ पकड़े हुए कमरे से बाहर निकल गया। तांगे वाला पीछे लपका, मगर जामिद ने उसे इतनी जोर से धक्का दिया कि वह औंधे मुँह जा गिरा। एक क्षण में जामिद और स्त्री दोनों सड़क पर थे।
जामिद- आपका घर किस मोहल्ले में है?
औरत- अढ़ियागंज में।
जामिद- चलिए, मैं आपको पहुँचा आऊँ।
औरत- इससे बड़ी और क्या मेहरबानी होगी। मैं आपकी इस नेकी को कभी न भूलूंगी। आपने आज मेरी आबरू बचा ली, नहीं तो मैं कहीं की न रहती। मुझे अब मालूम हुआ कि अच्छे और बुरे सब जगह होते हैं। मेरे शौहर का नाम पंडित राजकुमार है।
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