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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807
आईएसबीएन :9781613015445

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग


उसी वक्त एक तांगा सड़क पर आता दिखाई दिया। जामिद ने स्त्री को उस पर बिठा दिया और ख़ुद बैठना ही चाहता था कि ऊपर से काज़ी साहब ने जामिद पर लठ्ठ चलाया और डंडा तांगे से टकराया। जामिद तांगे में आ बैठा और तांगा चल दिया।

अहियागंज में पंडित राजकुमार का पता लगाने में कठिनाई न पड़ी। जामिद ने ज्यों ही आवाज दी, वह घबराए हुए बाहर निकल आए और स्त्री को देखकर बोले- तुम कहाँ रह गई थीं, इंदिरा? मैंने तो तुम्हे स्टेशन पर कहीं न देखा, मुझे पहुँचने में देर हो गई थी। तुम्हें इतनी देर कहाँ लगी?

इंदिरा ने घर के अंदर कदम रखते ही कहा- बड़ी लम्बी कथा है, जरा दम लेने दो तो बताती हूँ। बस, इतना ही समझ लो कि आज इस मुसलमान ने मेरी मदद न की होती तो आबरू चली गई थी।

पंडित जी पूरी कथा सुनने के लिए और भी व्याकुल हो उठे। इंदिरा के साथ वह भी घर में चले गए, पर एक ही मिनट बाद बाहर आकर जामिद से बोले- भाईसाहब, शायद आप बनावट समझें, पर मुझे आपके रूप में इस समय इष्टदेव के दर्शन हो रहे हैं। मेरी जबान में इतनी ताकत नहीं कि आपका शुक्रिया अदा कर सकूँ। आइए, बैठ जाइए।

जामिद- जी नहीं, अब मुझे इजाजत दीजिए।

पंडित- मैं आपकी इस नेकी का क्या बदला चुका सकता हूँ?

जामिद- इसका बदला यही है कि इस शरारत का बदला किसी गरीब मुसलमान से न लीजिएगा, मेरी आपसे यही दरख़्वास्त है।

यह कहकर जामिद उठ खड़ा हुआ और उस अंधेरी रात के सन्नाटे में शहर से बाहर निकल गया। उस शहर की विषाक्त वायु में साँस लेते हुए उसका दम घुटता था। वह जल्द-से-जल्द शहर से भागकर अपने गाँव में पहुँचना चाहता था, जहाँ मजहब का नाम सहानुभूति, प्रेम और सौहार्द्र था। धर्म और धार्मिक लोगों से उसे घृणा हो गई थी।

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6. होली का उपहार

मैकूलाल अमरकान्त के घर शतरंज खेलने आये, तो देखा, वह कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रहे हैं। पूछा- कहीं बाहर की तैयारी कर रहे हो क्या भाई? फुरसत हो, तो आओ, आज दो-चार बाजियाँ हो जाएँ।

अमरकान्त ने सन्दूक में आईना-कंघी रखते हुए कहा- नहीं भाई, आज तो बिलकुल फुरसत नहीं है। कल जरा ससुराल जा रहा हूँ। सामान-आमान ठीक कर रहा हूँ।

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