कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
मैकू- तो आज ही से क्या तैयारी करने लगे? चार कदम तो हैं। शायद पहली बार जा रहे हो?
अमर- हाँ यार, अभी एक बार भी नहीं गया। मेरी इच्छा तो अभी जाने को न थी; पर ससुरजी आग्रह कर रहे हैं।
मैकू- तो कल शाम को उठना और चल देना। आध घण्टे में तो पहुँच जाओगे।
अमर- मेरे हृदय में तो अभी से जाने कैसी धडकन हो रही है। अभी तक तो कल्पना में पत्नी-मिलन का आनन्द लेता था। अब वह कल्पना प्रत्यक्ष हुई जाती है। कल्पना सुन्दर होती है, प्रत्यक्ष क्या होगा, कौन जाने।
मैकू- तो कोई सौगात ले ली है? खाली हाथ न जाना, नहीं मुँह ही सीधा न होगा। अमरकान्त ने कोई सौगात न लिया था। इस कला में अभी अभ्यस्त न हुए थे।
मैकू बोला- तो अब ले लो, भले आदमी! पहली बार जा रहे हो, भला वह दिल में क्या कहेंगी?
अमर- तो क्या चीज ले जाऊँ? मुझे तो इसका ख्याल ही नहीं आया। कोई ऐसी चीज बताओ, जो कम खर्च और बालानशीन हो; क्योंकि घर भी रुपये भेजने हैं, दादा ने रुपये माँगे हैं।
मैकू माँ-बाप से अलग रहता था। व्यंग्य करके बोला- जब दादा ने रुपये माँगे हैं, तो भला कैसे टाल सकते हो! दादा का रुपये माँगना कोई मामूली बात तो है नहीं?
अमरकान्त ने व्यंग्य न समझकर कहा- हाँ इसी वजह से तो मैंने होली के लिए कपड़े भी नहीं बनवाये। मगर जब कोई सौगात ले जाना भी जरूरी है, तो कुछ-न-कुछ लेना ही पड़ेगा। हलके दामों की कोई चीज बतलाओ।
दोनों मित्रों में विचार-विनिमय होने लगा। विषय बड़े ही महत्व का था। उसी आधार पर भावी दाम्पत्य-जीवन सुखमय या इसके प्रतिकूल हो सकता था। पहले दिन बिल्ली को मारना अगर जीवन पर स्थायी प्रभाव डाल सकता है, तो पहला उपहार क्या कम महत्व का विषय है? देर तक बहस होती रही; पर कोई निश्चय न हो सका।
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