कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
अमरकान्त के पाँव आगे न जा सके। बुढिय़ा को उठाया और उससे क्षमा माँग रहे थे कि तीनों स्वयंसेवकों ने पीछे से आकर उन्हें घेर लिया। एक स्वयंसेवक ने साड़ी के पैकेट पर हाथ रखते हुए कहा- बिल्लाती कपड़ा ले जाए का हुक्म नहीं ना। बुलाइत है, तो सुनत नाहीं हौ।
दूसरा बोला- आप तो ऐसे भागे, जैसे कोई चोर भागे?
तीसरा- हज्जारन मनई पकर-पकरि के जेहल में भरा जात अहैं, देश में आग लगी है, और इनका मन बिल्लाती माल से नहीं भरा।
अमरकान्त ने पैकेट को दोनों हाथों से मजबूत करके कहा- तुम लोग मुझे जाने दोगे या नहीं।
पहले स्वयंसेवक ने पैकेट पर हाथ बढ़ाते हुए कहा- जाए कसन देई। बिल्लाती कपड़ा लेके तुम यहाँ से कबौं नाहीं जाय सकत हौ।
अमरकान्त ने पैकेट को एक झटके से छुड़ाकर कहा- तुम मुझे हर्गिज नहीं रोक सकते।
उन्होंने कदम आगे बढ़ाया, मगर दो स्वयंसेवक तुरन्त उसके सामने लेट गये। अब बेचारे बड़ी मुश्किल में फँसे। जिस विपत्ति से बचना चाहते थे, वह जबरदस्ती गले पड़ गयी। एक मिनट में बीसों आदमी जमा हो गये। चारों तरफ से उन टिप्पणियाँ होने लगीं।
‘कोई जण्टलमैन मालूम होते हैं।’
‘यह लोग अपने को शिक्षित कहते हैं। छि:! इस दूकान पर से रोज दस-पाँच आदमी गिरफ्तार होते हैं; पर आपको इसकी क्या परवाह!’
‘कपड़ा छीन लो और कह दो, जाकर पुलिस में रपट करें।’
‘बेचारे बेडिय़ाँ-सी पहने खड़े थे। कैसे गला छूटे, इसका कोई उपाय न सूझता था। मैकूलाल पर क्रोध आ रहा था कि उसी ने यह रोग उनके सिर मढ़ा। उन्हें तो किसी सौग़ात की फिक्र न थी। आये वहाँ से कि कोई सौग़ात ले लो।
कुछ देर तक लोग टिप्पणियाँ ही करते रहे, फिर छीन-झपट शुरू हुई। किसी ने सिर से टोपी उड़ा दी। उसकी तरफ लपके, तो एक ने साड़ी का पैकेट हाथ से छीन लिया। फिर वह हाथों-हाथ गायब हो गयी।
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