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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807
आईएसबीएन :9781613015445

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग


अमरकान्त ने बिगडकर कहा- मैं पुलिस में रिपोर्ट करता हूँ।

एक आदमी ने कहा- हाँ-हाँ, जरूर जाओ और हम सभी को फाँसी चढ़वा दो!

सहसा एक युवती खद्दर की साड़ी पहने, एक थैला लिए आ निकली। यहाँ यह हुड़दंग देखकर बोली- क्या मुआमला है? तुम लोग क्यों इस भले आदमी को दिक कर रहे हो?

अमरकान्त की जान में जान आयी। उसके पास जाकर फरियाद करने लगे- ये लोग मेरे कपड़े छीनकर भाग गये हैं और उन्हें गायब कर दिया। मैं इसे डाका कहता हूँ, यह चोरी है। इसे मैं न सत्याग्रह कहता हूँ, न देश प्रेम।

युवती ने दिलासा दिया- घबड़ाइए नहीं! आपके कपड़े मिल जाएँगे होंगे तो इन्हीं लोगों के पास! कैसे कपड़े थे?

एक स्वयंसेवक बोला- बहनजी, इन्होंने हाशिम की दूकान से कपड़े लिये हैं।

युवती- किसी की दूकान से लिये हों, तुम्हें उनके हाथ से कपड़ा छीनने का कोई अधिकार नहीं है। आपके कपड़े वापस ला दो। किसके पास हैं?

एक क्षण में अमरकान्त की साड़ी जैसे हाथोंहाथ गयी थी, वैसे ही हाथोंहाथ वापस आ गयी। जरा देर में भीड़ भी गायब हो गयी। स्वयंसेवक भी चले गये। अमरकान्त ने युवती को धन्यवाद देते हुए कहा- आप इस समय न आयी होतीं तो इन लोगों ने धोती तो गायब कर ही दी थी, शायद मेरी खबर भी लेते।

युवती ने सरल भत्र्सना के भाव से कहा- जन सम्पत्ति का लिहाज सभी को करना पड़ता है; मगर आपने इस दूकान से कपड़े लिये ही क्यों? जब आप देख रहे हैं कि वहाँ हमारे ऊपर कितना अत्याचार हो रहा है, फिर भी आप न माने। जो लोग समझकर भी नहीं समझते, उन्हें कैसे कोई समझाये!

अमरकान्त इस समय लज्जित हो गये और अपने मित्रों में बैठकर वे जो स्वेच्छा के राग अलापा करते थे, वह भूल गये। बोले- मैंने अपने लिए नहीं खरीदे हैं, एक महिला की फरमाइश थी; इसलिए मजबूर था।

‘उन महिला को आपने समझाया नहीं?’

‘आप समझातीं, तो शायद समझ पातीं, मेरे समझाने से तो न समझीं।’

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