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कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
साजन की सब सोई वासनायें
जाग उठीं - भूले हुए पाठ की तरह अच्छे गुरु के
सामने स्मरण होने लगी थीं!
उसे अब शीत लगने लगा -
रमला के कपड़ों की आवश्यकता वह स्वयं अनुभव करने
लगा।
अकस्मात् एक दिन रमला ने
कहा- ”चलो, कहीं घूम आवें।”
साजन ने भी कह दिया-
”चलो।”
वही गिरिपथ, जिसने बहुत
दिनों से मुनष्य का पद-चिह्न भी नहीं देखा था-साजन
और रमला के पैर चूमने लगा। दोनों उसे रौंदते चले गये।
रमला
अपनी फटी साड़ी में लिपटी थी और साजन वल्कल बाँधे था। वे दरिद्र थे पर
उनके मुख पर एक तेज था। वे जैसे प्राचीन देवकथाओं के कोई पात्र हों।
सन्ध्या हो गयी थी - गाँव का जमींदार का प्रांगण अभी सूना न था। जमींदार
भी बिल्कुल युवक था। उसे इस जोड़े को देखकर कुतूहल हुआ। उसने वस्त्र और
भोजन की व्यवस्था करके उन्हें टिकने की आज्ञा दे दी।
प्रात:
आँखें खोल रहा था। किसान अपने खेतों में जाने की तैयारी में थे। रमला उठ
बैठी थी, पास ही साजन पड़ा सो रहा था। कपड़ों की गरमी उसे सुख में लपेटे
थी। उसे कभी यह आनन्द न मिला था। कितने ही प्रभात रमला झील के तट उस नारी
ने देखे। किन्तु यह गाँव का दृश्य उसके मन में सन्देह, कुतूहल, आशा भर रहा
था। युवक जमींदार अपने घोड़े पर चढऩा ही चाहता था कि उसकी दृष्टि मलिन,
वस्त्र में झांकती हुई दो आँखों पर पड़ी। वह पास आ गया, पूछने लगा- ”तुम
लोगों को कोई कष्ट तो नहीं हुआ?”
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